पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/५७९

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न व - JAD + + न + + + + + + + + + + ++ + + श्रीभक्तमाल सटीक । डन ॥ मथुरा मध्य मलेच्छ, बाद करि, बरबट * जीते। काजी अजित अनेक देखि परचै भै भीते । बिदित बात संसार सब सन्त साखि नाहिन दुरी । "केशौभट" नरमुकुटमणि, जिन की प्रभुता बिस्तरी ॥७५ ॥ (१३६) वात्तिक तिलक । श्रीकेशव भट्टजी सब नरों के मुकुटमणि हुए, कि जिनकी प्रभुता जगत् में विस्तार हुई । अापकी "काश्मीरी" की बाप थी, आप पापों के ताप देनेवाले जगत् को शोभित करनेवाले हुए । भगवद्धर्म से विरुद्ध अन्य धर्म रूपी वृक्षों के काटने को आपने हरिभक्ति रूपी हृढ़ कुठार धारण कर, उनको निर्मूल किया। मथुराजी के मध्य में म्लच्छ यवनों से विवादकर उन वरवटों को हराकर विश्रान्त घाट के श्रेष्ठ मार्ग को जीत लिया। अनेक दुष्ट "काजी"चेटकी जिन्हें किसी ने न जीते थे, वे आप का परचौ प्रभाव देख अति भय युक्त हुए, यह सब वार्ता संसार में विदित है । छिपी नहीं है । सब संत साक्षी हैं कि विश्रान्त घाट के मार्ग का विघ्न "श्रीकेशवभट्ट काश्मीरी" जी ने नाश किया । (४०८) टीका । कवित्त । (४३५) करि दिगविजै, सब पंडित हराय दिये, लिये बड़े बड़े जीति, भीति उपजाई है । फिरत चौडोल चढ़े, गज बाजि लोग संग, प्रतिभा को रंग, आए "नदिया" मभाई है ॥ डरे द्विज भारी, महाप्रभु जू विचारी तव, लीला विस्तारी, गंगा तीर सुख दाई है । बैठे लिंग आय, बोले, नम्रता जनाय, "रह्यो जग जसु छाय, नेकु सुनै मन भाई है"॥ ३३३ ॥ (२६६)

  • "वरवट" पाखण्डी, मिथ्या मार्गवाले।