पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/५८१

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NANA .RAM MAR , animar- 14 + -* श्रीभक्तमाल सटीक । हो पूछा कि तुमने कैसे सीख लिया ?" श्रीमहाप्रभुजी ने उत्तर दिया कि "जिसने श्रापको बनाने का प्रभाव दिया उसी ने हमको सिखा दिया ॥" (४१०) टीका । कवित्त । (४३३) "दूषन श्री भूषन हूँ कीजिये वखान याके,” सुनि दुख मानि, कही "दोष कहाँ पाइयै ।” “कविता प्रबंध मध्य रहे खोटि गंध अहो ! श्राज्ञा मोको देउ,” कह्यो “कहि के सुनाइये" ॥ व्याख्या करि दुई नई, औगुन सुगुन मई, आये निज धाम “भोर मिले" समुझाइयै । सरस्वती ध्यान कियो, आई ततकाल बाल, "बाल पै हरायो, सब जग जितवाइ” ॥३३५॥ (२६४) वात्तिक तिलक । श्रीमहाप्रभुजी ने कहा कि "इसके अर्थ, दूषण और भूषण सब कहिये।" दूषण शब्द सुन भट्टजी दुःखयुक्त हो कहने लगे कि “मेरी कविता में दूषण कहाँ?" श्रीमहाप्रभुजी ने कहा "कविताप्रबंध में दोषों की गंधि अवश्य रहती है, मुझको आज्ञा दीजै तो कह सुनाऊँ।" भहजी बोले कि “कहो।" तब श्रीमहामभुजी ने नवीन चमत्कार युक्त अर्थ, और भूषण तथा दूषण भी सब सुना दिये । भट्टजी ने कहा कि "अच्छा प्रातःकाल हम तुमको समझायेंगे," ऐसा कह, श्रासन पर था, एकांत में श्रीसरस्वतीजी का ध्यान किया। श्रीसरस्वतीजी आई, भट्टजी बोले “हे देवि ! सम्पूर्ण जगत् से जितवाके, इस बालक से मुझे हरवा दिया ?" (४११) टीका । कवित्त । (४३२) बोली सरस्वती मेरे "ईश भगवान वे तो मान मेरौ कितौ सन्मुख बतराइयै । भयो दरसन तुम्हें" मन परसन होत, सुनि सुख सोत बानी प्राये प्रभु पाइये ॥ विनै बहु करी, करि कृपा आप वोले अजू ! "भक्ति फल लीजे, काहू भूलि न हराइये। हिये धरि लई, भीर भार छोड़ि दई, पुनि नई यह भई सुनि दुष्ट मरवाइयै ॐ ॥३३६॥ (२६३) झर श्रीकेशवभट्ट के अनुयायियों ने कवित्त८३३ से ८३६ तक के चार कवित्त निकाल दिये हे ॥