पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/५८२

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edup- n in- - umment- HMUMBreakingNm भक्तिसुधास्वाद तिलक । वार्तिक तिलक। श्रीसरस्वतीजी बोली कि "वे बालक नहीं हैं, ईश्वर भगवत् के अवतार हैं। मेरा प्रभाव ऐसा नहीं है कि उनके सम्मुख वार्ता करूँ। जिस प्रभु को मन वाणी स्पर्श नहीं कर सकते, उनका दर्शन तुमको हुआ।" भट्टजी ने सरस्वतीजी की ऐसी सुखमय वाणी सुन, महाप्रभुजी के समीप श्रा, सप्रेम प्रार्थना की, श्रीमहाप्रभुजी कृपा कर कहने लगे "आप आज से भूल के भी किसी को न हराइये । श्रीकृष्णभक्ति मनुष्यतन का फल है, सो लीजिये।" यह वाती सुनते ही भट्टजी हृदय में धारण कर सब भीड़भाड़ छोड़ केवल भक्ति में आरूढ़ हुए। पुनः कालांतर में दुष्टों ने मथुरा में नवीन दुष्टता उठाई, तब आपने उन दुष्टों को नाश किया। (४१२) टीका । कवित्त । (४३१) आप काश्मीर सुनी वसत विश्रांत तीर तुरत समूह द्वार जंत्र इक धारियै । सहज सुभाय कोऊ निकसत आय, ताको पकरत जाय ताकें । 'मन्नत' निहारियै ॥ संग ले हजार शिष्य भरे भक्तिरंगमहा अरे वही ठौर बोले नीच पट गरिये । क्रोधभार झारे श्राय, 'सूत्रा' पे पुकारे, वे तौ देखि सबै हारे, मारे जल बोरि डारियै ।। ३३२॥ (२६२) बात्तिक तिलक । । श्रीकेशवभट्टजी भगवद्भक्ति में निरत “काश्मीर में विराजते थे॥ । वहाँ ही सुना कि "श्रीमथुरा विश्रान्तघाट के मुख्य मार्ग के बड़े द्वार पर बहुत से दुष्ट तुर्क लोगों और काजियों ने एक ऐसा यंत्र बाँधा है कि जो कोई आर्य (हिन्दू) उसके नीचे से निकलता है उसकी , “सुन्नत्' हो जाती है (अर्थात् अधो इन्द्री की त्वचा कट जाती है) तब उसको बहुत से यवन पकड़ वन छोड़, दिखाके कहते हैं कि देखो तुम तो 'मुसल्मान हो, और उसको वलात्कार अपनी जाति में , मिला लेते हैं"। तब एक सहस्र शिष्य संग में लिये, श्रीभक्ति के रंग किसी के मत से "कश्मीर" शब्द 'कश्यप' पमेरू से है।।