पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/५९०

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भक्तिसुधास्वाद तिलक । खेल हुआ कि घर में नित्य भोजन भी नहीं होता था। जब वही शीतऋतु आई, तब आपको भी वन भेजने की सुधि आई, और अत्यन्त अनुताप से नेत्रों से जल बहने लगा। इतने में एक मसियानी घर में धरी दृष्टि पड़ी, निश्चय किया कि "इसी को बेंच के कोई वत्र भेज दूं।" (४२०) टीका । कवित्त । (४२३) बेचि के बजार यों, रुपैया एक पायौ ताको, ल्यायौ मोटौ थान मात्र रंग लाल गाइये । भोज्यो अनुराग, पुनि नैन जल धार भीन्यो, भीज्यो दीनताई, धरि राख्यौ और भाइयै ।। कोऊ प्रभुजन आय सहज दिखाई दई, भई मन दियौ लै, "भंडारी पकराइये । काढू दास दासी के न काम को, पै जाउ लैक, विनती हमारी जू गुसाई न सुनाइये।" ॥३४१ ॥ (२८) वात्तिक तिलक । उस कज्जलपात्र को बेंचने से १) (एक रुपया) पाया, उससे लाल रंग से भीगा (रंगा) हुआ मोटे बच का थान मोल लिया। वह वन त्रिपुरदासजी के अनुगग से भीगा, पुनः उन्हीं के नेत्र जल धार से भी भीगा, फिर आपकी दीनता से भी भीगा। उसको लेकर आपने अपने घर रक्खा (आप का गृह "शेरगढ़ में था)। _ विचार करते थे कि "श्रीवृन्दावन की ओर से कोई भावेगा तो भेज दूंगा।" इतने ही में श्रीगुसांईजी का कोई जन सहज ही में दीख पड़ा । मन में भया कि “दै देना चाहिये ।" उनको देकर बड़ी दीनता से कहने लगे कि "यह श्रीगुसांईजी के भंडारी (कोठारी) के हाथ में दे दीजियेगा । यद्यपि यह वन किसी दासी दास के काम का भी नहीं है तथापि ले जाइये, मेरी ओर से कुछ विनय प्रार्थना वा, इस वन का ही समाचार, श्रीगुसाईजी को मत सुनाइयेगा।"