पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/५९१

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dag -- - 14++4. M . 14- 04 -1-2 .44 4 ५७२ श्रीभक्तमाल सटीक ! "राजिन्दर, जानकी-वर-चरण ध्यावो । सुयश श्रीपाणपति के नित्य गावो ॥" (जानकी प्रपन्न राजेन्द्रशरण, छपरा) दो० "जीते भज्यो न रामही, मखो न सरयू तीर। बनादास तिन ब्यर्थ ही, पायो मनुज शरीर ॥१॥ दरस स्वाति सुन्दर जलद, प्यासे चातक नैन । कबधौं दर्शन पाइ है । कब नहि है सुख चैन ॥ २॥ हम वासी वहि देश के, जहाँ जाति कुल नाहिं।। देह मिलन हो तो नहीं, वहाँ सु शब्द मिलाहिं ॥३॥" (४२१) टीका । कवित्त । (४२२) दियो लै भंडारी कर राखे धरि पट, वापै निपट सनेही नाथ बोले अकुलाय के।"भये हैं जड़ाये, कोऊ वेग ही उपाय करौ," विविध उढ़ाये अंग बसन सुहाय कै॥ आज्ञा पुनिई, यों अंगीठी वारि दई, फेर वही भई, सुनि रहे अतिही लजाय कै । सेवक बुलाय कही "कोन की कवाय आई?" सबै की सुनाई एक वही ली बचाय के ॥३४२॥ (२८७) वात्तिक तिलक । उसने लाके गुसाइजी के कोठराि के हाथ में दे दिया। उसने उस वस्त्र को बिछा के उसी पर अच्छे अच्छे वन रख दिये परन्तु, श्रीअत्यन्त स्नेही नाथ अति अकुला के गुसाई श्रीविठ्ठलनाथजी से बोले कि "हमको जाड़ा बहुत लगा है, शीघही कुछ उपाय करिये" गुसाईजी ने सई भरे बहुत से सुन्दर सुन्दर वन उढ़ाये, प्रभुने फिरि प्रज्ञा दी कि “जाड़ा तो नहीं गया।" गुसाईजी ने अंगीठी वार कर प्रभुके धागे रखदी। फिर प्रभुने कहा कि “जाड़ा तो नहीं गया |" सुनके श्रीगुसाइजी लज्जित हो गये कि “अब क्या उपाय करूँ।" तब विचार कर सेवक को बुला पूछा कि किस किसकी कवाय (जड़ावर) आई है ? वह (कोठारी) एक त्रिपुरदासजी का नाम छोड़ और सब के नाम एक एक कर कह गया।