पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/५९२

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भक्तिसुधास्वाद तिलक । (४२२) टीका । कवित्त । (४२१) सुनी न “त्रिपुरदास"! बोल्यो “धन नास भयो, मोटो एक थान मायौ राख्यो है विछाय के"। "ल्यावो बेगि याही छिन” मन की प्रवीन जानि, ल्यायो दुख मानि, व्योंति लई सो सिंवाय के ॥ अंग पहिराई सुखदाई, का पैगाई जाति, कही तब बात “जाडो गयो भरि भाय के"। नेह सरसाई, लै दिखाई, उर आई सबै ऐसी रसिकाई हृदै राखी है बसाय के ॥ ३४३॥ (२८६) बातिक तिलक । . गुसाईजी ने कहा "त्रिपुरदास की जड़ावर का नाम तो नहीं सुना ?" उसने कहा कि "उनका सव धन नाश हो गया। एक बहुत मुटिये वस्त्र का थान भेजा है, उसको मैंने वस्त्रों के नीचे विद्या रक्खा है।" श्रीगुसाईजी ने सुनते ही कहा कि वह वस्त्र इसी क्षण ला। प्रभु प्रवीण ने उनके मन की प्रीति जान ली। वह विमन होके लाया, श्रीगुसाईजी ने अति शीघ्र ही, सीनेवालों को बुलाय ब्योंताय, सिखाके प्रभु के श्रीअंग में पहिनाया, प्रभु को वह अत्यन्त सुखदाई हुआ। प्रभु ने अकथनीय सुख पाके कहा "अब हमारा जाड़ा गया" (प्रेम के भूखे साँवलिया) देखिये भक्त के स्नेह की सरसता प्रभु ने दिखाई । यह सबके हृदय में निश्चय हुआ कि श्रीनाथ ने इस प्रकार की रसिकाई अपने हृदय में वसा रक्खी है। श्रीत्रिपुरजी की जय ॥ (६८)श्रीविठ्ठलेशसुत। (४२३) छप्पय । (४२०) (श्री) विहलेस-सुत सुहृद श्रीगोबरधनधर ध्याइयै ॥ श्रीगिरिधरं जू सरससील,गोबिन्द जु साथहि । बालकृष्ण जसबीर,धीर,श्रीगोकुलनाथहि॥श्रीरघुनाथ जु महाराज,