पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/५९३

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५७४ H in + Rana+1 M ina Huntal श्रीभक्तमाल सटीक । श्रीजर्दुनाथहिं भजि। श्रीघनश्याम जु, पगे प्रभु अनुरागी सुधि सजि ॥ए सात, प्रगट विमु, भजन जगतारन तस जस गाइयै। (श्री) बिट्टलेस-सुत मुहृद श्रीगोबरधनधर ध्याइयै ॥८० ॥(१३४) वात्तिक तिलक। ४८वें छप्पय, कवित्त १८७ में श्रीवल्लभाचार्यजी की कथा लिखी जाचुकी है जो संवत् १५७७ के लगभग हुए। श्रापही के पुत्र श्रीविट्ठलेश (विट्ठलनाथ) जी हैं जिनकी कथा मूल ७६ छप्पय में वर्णित है ॥ श्रीविट्ठलनाथजी का वात्सल्यभाव था। सो श्रीकृष्ण भगवान ने आपकी भक्तिवश कृपा करके विचारा कि "नन्द वावा की जगह तो श्रीविठ्ठल गुसाईजी हैं, पर माता यशोदाजी के स्थान में भी एक चाहिये," इसलिये आपसे स्वीकार करने के अर्थ स्वप्न में कहकर, एक ब्राह्मण की सुन्दर गुणवती कन्या से विवाह करवा दिया। दम्पति से श्रीकृष्ण भगवान के अंश विभु सात बेटे क्रमशः हुए, अर्थात् प्रथम पुत्र में ५ वर्ष पर्यन्त, पुनः छठे वर्ष से दश वर्ष तक द्वितीय पुत्र में, फिर पन्द्रहवें वर्ष तक तृतीय में, बीसवें तक चतुर्थ में, पचीसवें तक पंचम में, तीसवें तक षष्ठ में, ३५ (पैंतीसवें) वर्ष पर्यन्त सप्तम पुत्र में भगवान का विभु रहा और इस प्रकार से ३५ वर्ष तक लगातार क्रमशः प्रत्यक में और उसके पश्चात् अर्चावतार में स्वयं भगवत् ने श्राप इनके पुत्र होने का सुख श्रीविट्ठलनाथजी को दिया। आपके भाग्य तथा भगवत्- कृपा की प्रशंसा कहाँ तक की जासके, और उन सात की सराहना किससे हो सके कि जो पाँच पाँच वर्ष तक भगवदविभु, और तिस पीछे श्रीवल्लभाचार्य सम्प्रदाय के भूपण रहे ॥ ___ एक समय आपके एक पुत्र बन्दर देख डरकर भागे और आपके गोद में पा लिपटे, श्राप भगवत् ऐश्वर्य के ज्ञान में उस समय कह