पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/५९६

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4 4 44 + भक्तिसुधास्वाद तिलक । एक समय श्राप कुछ वस्तु लेने दिल्ली गए, वहाँ एक मिठाईवाले के यहाँ उत्तम जलेवियाँ कड़ाही से निकलती देख, उन जलेवियों को "श्रीनाथजी" को (मानसी) भोग लगाया । प्रेम के ग्राहक श्रीठाकुरजी ने स्वीकार कर लिया । यहाँ मन्दिर में थार उतारने के समय जलेवियों का थार भी पाया गया। । आगे चलकर एक वारमुखी का राग सुनकर आपने अनुरागावेश में उससे पूछा कि "हे चन्द्रमुखी भक्तिनि । मेरा शशिमुख लाला राग का बड़ा रसिक है, तुम उसको राग गान सुनाने के लिये मेरे साथ चलोगी?" उसने रिझवार समझ कहा कि "हाँ, चलूँगी॥" आप लोक की लज्जा छोड़, उस वारमुखी को अपने साथ लाए। (४२६) टीका । कवित्त । (४१७) नीके अन्हवाय, पट आभरन पहिराय, सोंधी हूँ लगाय, हरिमन्दिर में ल्याये हैं। देखि भई मतवारी,कीनी लै अलापचारी, कह्यो “लाल देखें ?" बोली “देखे, में ही भाये हैं" ॥ नृत्य,गान, तान भावभरि मुसक्यान दृग रूप लपटान, नाथ निपट रिझाये हैं। हैकै तदाकार, तन छुट्यो अंगीकार करी धरी उर प्रीति, मन सबके भिजाये हैं ॥ ३४५ ॥(२८४) वात्तिक तिलक। उस वारमुखी को व्रज में ला, भली भाँति स्नान करवा, वसन भूषण पहिरा, शृङ्गार करा, सुगन्ध लगा, उसे "श्रीनाथ" जी के मन्दिर में खाकर, ठाकुरजी के सामने खड़ीकर, आज्ञा की कि “मनुष्यों को बहुत रिझाया, अब तेरा भाग्य चमका हमारे लालजी को रिझा।" वह हरि के दर्शन पा मतवाली हो नाचने गाने लगी । आपने पूछा "मेरे लला को तूने देखा ?" उसने उत्तर दिया कि “केवल देखा ही नहीं वरन् इनकी सौन्दर्य पर अपना तन मन भी वार चुकी ॥" उसने गाया, नाचा, भाव वताया,अपनीसव कलाएँ प्रगटकर भगवत् को अतिशय रिझा लिया। तदाकार हो गई, सवको प्रेम रङ्ग में भिगा दिया, शरीर उसी दशा में छोड़कर परमपद को पहुँच गई ।