पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/६०३

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५८४ ++ +- 244 +- 4 - Mar- श्रीभक्तमाल सटीक। उपाय, रही कितौ हाहा खाय, ये तो रहे मँडराय, तब बसी मन हारि के ॥३५० ॥ (२७६) वार्तिक तिलक। जब श्रीविठ्ठलजी की मूर्छा गई तो आपकी माताजी ने राना की परीक्षा की सब बात कह सुनाई । श्राप रात के समय अपने घर से चल दिये । "छठीकरा" ग्राम में पाए जहाँ श्रीयशोदाजी ने भगवान की छठी की थी । वहाँ श्री "गरुड़गोबिन्द" जी की सेवा पूजा में तत्पर हुए, प्रभु की छवि देख देख मग्न रहा करते थे। राना के नौकरों ने लाख दूँदा, कहीं नहीं पाया । पर आपकी नी तथा माता को श्राप मिले, त्रिया और माता चिल्ला चिल्लाकर रोने लगी, घर चलने के लिये बहुत कुछ कहा, पर आपने एक न सुनी, वहीं जमे रह गए । तब हारकर थापकी स्त्री और माताजी भी वहीं रहीं। (४३५) टीका । कवित्त । (४०८)। देख्यो जब कष्ट तन प्रभू जू स्वपन दियो “जावो मधुपुरी" ऐसे तीन बार भाषिये । आये जहाँ जाति पाँति छाये कछु और रंग, देख्यो एक खाती, साधु संग अभिलाषियै ॥ तिया रहै गर्भवती सती मति सोच रती खोद भूमि पाई प्रतिमा 'सु धन राषिये । खाती को बुलाय कही "लही यहु लेहु तुम" उन पाँय पीर को रूप मुख चाषिये ॥ ३५१ ॥ (२७८) वात्तिक तिलक। आपको कुछ कष्ट में देखकर भगवत् ने तीन बेर स्वप्न में आज्ञा की कि "मधुपुरी (श्रीमधुराजी) जाओ।" आज्ञानुसार मथुराजी गए, परन्तु वहाँ अपनी जाति को और ही रंग में अर्थात भगवद्- भक्ति से विमुख पाया, इस कारण से एक बढ़ई साधुसेवी के घर में घासन किया। आपकी श्री परम सती गर्भवती थी, इससे द्रव्य के अभाव से कुछ शोच हुा । मिट्टी खोदते में श्रीसीतारामकृपा से बहुत सा धन और एक भगवत्प्रतिमा पास देखकर आप उस बढ़ई भक्त