पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/६०४

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PHunn amamat-p mangARAHALA भक्तिसुधास्वाद तिलक । को देने लगे, पर भक्तजी ने पाँव पकड़कर विनय किया कि “भगवत् की और भागवत की सेवा के योग्य प्रापही हैं ॥” (४३६) टीका ! कवित्त। (४०७) करें सेवा पूजा, और काम नहिं दूजा, जब फैलि गई भक्ति, भये शिष्य बहु भाय के। बड़ोई समाज होत, मानो. सिंधु सोत आये विविध, बधाये गुनीजन उठे गाय के ।। आई एक नदी, गुण रूप धन जटी, वह गा तान कटी, चटपटी सी लगाय के दिये पट भूषन लै भूख न मिटत किहूँ, चहूँ दिसि हेरि पुत्र दियो अकु- लाय के ॥ ३५२॥ (२७७) वात्तिक तिलक । श्रीविठ्ठलजी पूजा छोड़ और कुछ नहीं करते थे, सो आपकी भगवत्सेवा ऐसी विख्यात हुई कि बहुत लोग आ पाके आपके चेले हुए। बड़े धूमधाम से समाज होता था मानो उत्सव के सोते समुद्र में आ पहुँचते थे। गुणियों का नाचना गाना भी भले प्रकार से होता था। एक दिन एक गुणवती नटी ने भगवत् के आगे ऐसा नृत्य और कीर्तन किया कि बेसुध होकर श्रीविठ्ठलदासजी ने सब सम्पत्ति की तो बात ही क्या, वरच अपने पुत्र श्रीरंगीरायजी तक को भी श्रीभगवत् पर न्यवछावर करके उस नदी को दे दिया। दो० "रूप, चोज की बात पुनि, सरस कटीली तान । रसिक प्रवीणन के हिये, छेदन को ये वान ॥" (४३७ ) टीका । कवित्त । ( ४०६ ) "रंगी राय" नाम ताकी सिष्या एक रानासुता, भयो दुख भारी नेकु जलहूँ न पीजियै । कहि के पठाई वासों, “चाही सोई धन लीजै, मेरो प्रभु रूप मेरे नैननि. दीजिय” ॥ "द्रव्य तो न चाहौं, रीमि बाहौं तन मन दियौ," फेरि के समाज कियौ बिनती को कीजिये । जिते गुनीजन तिनै दिये अनगन दाम, पाछे नृत्य कलो पाप, देत सो न लीजिये ।। ३५३॥ (२७६)