पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/६०५

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श्रीभक्तमाल सटीक । वात्तिक तिलक । श्रीरंगीरायजी की शिष्या राना की एक लड़की थी, इसने यह सुनकर कि “हमारे गुरुजी को उनके पिता श्रीविठ्ठलदासजी ने अमुक नटिनी को दान कर दिया, अन्न जल छोड़ दिया, और उस नटिनी को कहला भेजा कि मनमाना धन मुझसे ले मेरे गुरु भगवान् को मुझे दे कि दर्शन किया करूँ।" उसने उत्तर दिया कि "मैं द्रव्य की भूखी नहीं। हाँ, रीझने पर तो तन मन धन सबही दे सकती हूँ॥" . राजकन्या ने श्रीविठ्ठलजी से बहुत विनय करके, पुनः भागवत्समाज कराया। सब गुणी नाचे गाए, इनको इसने बहुत कुछ दिया, और इसने आप भी भगवत् के आगे नृत्य किया, श्रीविठ्ठलजी न्योछावर देने लगे, पर न लिया ॥ . (४३८) टीका । कवित्त । (४०५) । ल्याई यक डोला मैं बैठाय रंगीरायज़ को, सुन्दर सिंगार, कही बार तेरी आइयै । कियो नृत्य भारी जो विभूति सो तौ वारि लिये भरि अकवारी भेंट किये द्वार गाइयै ॥ "मोहन न्यौछावर मैं भयो, मोहि लेहु मति," लियौ उन शिष्य, तन तज्यों कहा पाइयै । कह्यौ जू चरित्र बड़े रसिक विचित्रन को, जो पै लाल मित्र कियो चाहाँ, हिये ल्याइयै ॥ ३५४॥ (२७५) । वार्तिक तिलक । श्रीरंगीरायजी का सुन्दर शृंगार कर, उनको डोले में बिठला, वह नटिनी ले आई, और कहा कि “अब नृत्य करने की तुम्हारी बारी है।" श्रीरंगीरायजी ने ऐसा नृत्य तथा गान किया कि निपट रीझके नटी श्रीरंगीरायजी को न्यवछावर कर फिर श्रीविठ्ठलदासजी को देने लगी, पर जब आपने न लिया तो इनकी शिष्या राजकन्या ने इनको ले लिया और अति प्रसन्न हुई। 'उसी क्षण श्रीरंगीरायजी ने अपने प्राण भी भगवत् को न्यवछावर कर दिये। बड़े बड़े रसिकों के चरित्र मैंने गा सुनाये, जो आप चाहते हो कि "श्रीयुगल सर्कार के चरणों में प्रेमापराभक्ति मुझे होवे," तो