पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/६१२

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५९३ 4+8+14 .1amentHmputeMuTHu n MEHTANAMAMIRupaitra भक्तिसुधास्वाद तिलक । ..................५९३ (४४७) टीका । कवित्त । (३९६) बृन्दावन ब्रजभूमि जानत न कोऊ पाय, दई दरसाय जैसी शुक- मुख गाई है। रीतिहूँ उपासना की भागवत अनुसार, लियो रससार सो रसिक सुखदाई है ॥ आज्ञा प्रभु पाय पुनि “गोपीस्वर" लगे आय, किये ग्रंथ पाय भक्ति भाँति सब पाई है। एक एक बात में समात मन बुद्धि जब, पुलकित गात हग झरी सी लगाई है।३५८॥ (२७१) वात्तिक तिलक । श्रीब्रजभूमि वृन्दावन को उस समय प्रायः कोई नहीं जानता था, श्रीरूपजी, श्रीसनातनजी, दोनों भाइयों ने ही श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभुजी के अनुशासन से वहाँ आकर वैसी ही दिखा दी कि जैसी श्रीशुकदेव स्वामी ने वर्णन किया है। आपने उपासना की रसराशि रीति भी श्रीमद्भागवत के अनुसार प्रकाश की कि जो रसिक- जनों को अति सुखदाई है ॥ श्रीयमुनाजी, कुंजवन और दो चार घरों के पुरवे के अतिरिक्त उस समय वहाँ कुछ न था। श्रीवृन्दा देवीजी की पूजा के लिये लोगों का जाना सुन श्राप दोनों भी वहीं जा रात्रि में बसे । वृन्दा देवीजी ने दर्शन दिया । पुलि श्रीकृष्ण भगवान की आज्ञा पाके श्रीगोपीश्वर महादेवजी के दर्शन किये । श्रीशिवजी के अनुग्रह तथा स्वम देने से श्रीरूपजी ने श्रीहरिभक्ति के विविध ग्रन्थ ( भक्तिरसामृत, रससिद्धान्त, भगवदमृत, इत्यादि) रचे कि जिनकी एक एक बात में मन बुद्धि के प्रवेश करने से गात पुलकित होता है, और नयनों से प्रेमाश्रु की झड़ी सी लग जाती है। श्रीवृन्दा देवीजी ने आज्ञा की, तब इनकी मूर्ति को दोनों महा- नुभावों ने खोद निकाली और स्थापना किया । जब किसी की गऊ बच्चा देती है तो वह कुछ दिन तक श्रीवृन्दा देवीजी को दूध चढ़ाता है।