पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/६१३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

श्रीभक्तमाल सटीक। (४४८) टीका । कवित्त । (३९५) रहै “नन्दगाँव,” “रूप” आये, श्री "सनातन" जू महासुख रूप भोग खीर को लगाइयै । नेकु मन आई, सुखदाई पिया लाहिती जु मानौ कोऊ पालकी सुसोज सब ल्याइये ।। करिक रसोई सोई, ले प्रसाद पायौ, भायो, अमल सो आयो चढ़ि, पूछी, सो जताइये। "फेरि जिनि ऐसी करौ यही दृढ़हिये धरौ ढरौ निज चाल," कहि श्रॉल भरि आइयै ॥ ३५६ ॥ (२७०) वात्तिक तिलक । श्रीरूपजी नन्दगाँव से श्रीसनातनजी के पास आए। इनकी यह इच्छा हुई कि तस्मई (वीरान) युगलसकार को भोग लगाकर सोई प्रसाद ऐसे महानुभाव को पवा । यह वात जैसे मन में आई ही थी कि परम सुखदाइनि श्रीराधिका जाडिलीज एक बालिका का रूप धर खीर भोग का सब सौज ले ही आई। श्रीसनातनजी ने रसोई करके श्रीयुगलसकार को भोग लगाया। जब दोनों प्रेमियों ने प्रसाद पाया, तो अद्भुत स्वाद आया बरन कुछ अमल सा चढ़ आया। श्रीरूपजी ने इसका कारण पूछा । श्रीसनातनजी ने उत्तर में सब बार्ता कह सुनाई। श्रीरूपजी ने आज्ञा की कि फिर कभी ऐसा न हो, इस बात को हृदय में दृढ़ करके रखो। अपनी विरक्ति चाल पर ही चलो। दोनों मूर्ति श्रीललीजी की कृपा को स्मरण कर प्रेम जल आँखों से बरसाने लगे। (४४९) टीका । कवित्त । (३९४) रूप गुण गान होत, कान सुनि सभा सब अति अकुलान पान, मूरछा सी आई है । बड़े श्राप धीर रहे ठाडे,न सरीर सुधि, बुधि में । न आचै, ऐसी बात लै दिखाई है ।। श्रीगुसाई "कर्णपूर, पाछे श्राय । देखे भाछे, नेकु दिग भए, स्वास लाग्यो तब पाई है। मानो आगि आँच लागी, ऐसो तन चिह्न भयो, नयो यह प्रेम रीति कापै जात . गाई है ॥ ३६०॥ (२६६)