पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/६१४

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meanuara nteen MAHARA M RPreranameramanemamanarestaurant- भक्तिसुधास्वाद तिलक । ५९५ वात्तिक तिलक । एक शत श्रीरूपजी श्रीगुसाई के समाज में श्रीहरिरूप गुण यश नाम का कीर्तन मान ऐसा हो रहा था कि समाज के समाज सब ही वेसुध हो रहे थे । प्रेम में प्राण ऐसे व्याकुल हुए कि सबको मूर्छा सी आ गई । परन्तु आप बड़े धीर थे खड़े हो रहे हाँ, शरीर की सुधि तो न थी। गुसाई श्रीकर्णपूरजी के मन में पाया कि आपको देखें तो।' सो ये आपके कुछ समीप गए, आपके श्वास जो इनके लगे तो ऐसे तप्त थे कि मानों श्राग की पाँच लगी, इनके शरीर में फफोले पड़ पाए । यह प्रेमरीति नई है किससे इसका वर्णन हो सके। (४५०) टीका । कवित्त । (३९३) "श्रीगोविन्दचन्द" श्राय निसिको स्वपन दियो, दियौ कहि भेद सब जासों पहिचानिये । रहौं मैं खरिक माँझ पो निसि भोर साँझ, सी, दूध धार गाय, जाय देख जानिये ॥ प्रगट लै कियो, रूप अति ही अनूप छवि, कवि कैसे कहे, थकि रहै, लखि मानिये । कहाँ लौं बखानों मेरै सागर न मागर मैं, नागर रसिक हिये निसि दिन पानिये ।। ३६१ ॥ (२६८) वात्तिक तिलक । श्रीगोविन्दचन्द्रजी ने आपको स्वप्न में दर्शन देकर आज्ञा की कि "खरिक में अमुक ठिकाने मेरी मूर्ति है, भूमि खोदके निकालकर स्थापित करो,” पहिचानने के अर्थ गोविन्ददेवजी ने पूरे पूरे सब पते बता दिये और यह भी कहा कि “गऊ सब भोर साँझ वहाँ मुझ- को दूध चढ़ाती हैं, जाके देखो।" श्रीरूपजी श्रीसनातनजी ने श्री- गोविन्दचन्द्र की मूर्ति प्रगट की, ऐसी अनूप प्रतिमा कि उसकी अवि बखानने में कवि लोग थकित हो जाते हैं, देखते ही बनता है। १ कहते हैं कि श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु के गोलोकवासी होने पर आपके समाज के लोग थीपुरुषोसमपुरी से थीवृन्दावन मे श्रीरूपसनातनजी के पास चले आए। २ जब शरीर का अभिमान नहीं रहता तो मूर्छा नहीं होती है ।