पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/६१५

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namamatertainmenuman sumtaarkmran 41 + श्रीभक्तमाल सटीक। मैं कहाँ तक बखान करूँ सागर कहीं गागर (घड़े) में समा सकता है ? रसिक जनों के हृदय में प्रभु दिन रात विराजते हैं । (४५१) टीका ! कवित्त । (३९२) रहैं "श्रीसनातन" जू "नन्दगाँव” “पावन” पे, पावन दिवस तीन दूध ले के प्यारियै । साँवरो किशोर, आप पूछे "किहिं ओर रहो ?" "कहे चारि भाई" पिता रीतिहुँ उचारिये ॥ गये प्राम, बूझी घर, हरि पे न पाये कहूँ, चहूँ दिसि हरि हेरि, नैन भरि डारिये । अब कै जो श्रावे, फेर जान नहीं पावै, सीस लाल पाग भावे, निसि दिन उर धारिये ॥ ३६२॥ (२६७) वात्तिक तिलक । श्रीसनातनजी नन्दगाँव में पावनसर पर रहते थे, श्रीप्रिया- प्रियतमजी की कृपा से दूध मिला करता था, एक बेर तीन दिन पर्यन्त नहीं मिला। चौथे दिन एक साँवले किशोर ने क्षीरान (खीर) प्रसाद लाकर दिया । अापने इनकी सुन्दरता देख पूछा “लाला! तुम रहते कहाँ हो ?" आपने उत्तर दिया कि “मैं चार भाई हूँ" और अपने पिता का भी पता बताया। श्रीसनातनजी ने उस गाँव में जाकर उनका घर लोगों से पूछा परन्तु श्रीहरी का पता कहीं नहीं पाया ! चारों दिशि हूँढ़ थके नेत्रों से आँसू बहाने और कहने लगे कि “वे चित्तचोर लाल पगियावाले अब यदि आवेंगे, तो फिर उनको जाने न दूँगा।" इसी भाँति प्रभु के प्रेम में आप मग्न रहा करते थे। (४५२) टीका : कवित्त । (३९१) कही ब्याली रूप बेनी, निरखि सरूप नैन, जानी श्रीसनातनजू काव्य अनुसारियै । “राधासर” तीर द्रुम डार गहि भूलें, फूल, देखत लफलफात गतिमति वारिये ॥ आये यों अनुज पास, फिर आस पास, देखि भयो अति त्रास, गहे पाँउ, उर धारियै । चरित अपार, उभे भाई हित सार पगे, जगे जग माहिं, मति मन मैं उचा- रिये ॥ ३६३॥ (२६६)