पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/६१६

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भक्तिसुधास्वाद तिलक। ५९७ name-hai. H MM M ore -entrauaruman- वात्तिक तिलक । श्रीसनातननी ने अपने अनूप काव्य में श्रीपियाजी की चोटी को व्याली रूप कहा है (नागिन की उपमा दी है)। श्रीरूपजी को दुष्ट जीव की उपमा भला नहीं लगी पर काव्यरीति समझ चुप रह गए। एक दिन श्रीराधासर के तीर एक वृक्ष में झूला देखा कि बहुत सी सखियाँ श्रीलाड़िलीजी को झुला रही हैं, और श्रीललीजी की वेणी ठीक ठीक नागिन के बच्चे की ही भाँति लहराती अत्यन्त शोभा देती है। आपको उस काम का स्मरण हो पाया और अानन्द में फूले न समाए, गति मति सब न्यवछावर कर दिया। अनुज (छोटे भाई) के पास आ, आपकी परिक्रमा कर, पाँव पड़ बड़े त्रसित हुए, और सम्पूर्ण वार्ता कह सुनाई॥ दोनों भाइयों के प्रेम तथा चरित अपार, परमार्थसार, और जग में विख्यात हैं। मन बुद्धिको इसमें डुवा के परमसुख लेना चाहिए। श्रीरूप सनातनजी ने श्रीगोविन्दचन्द्रजी की पूजा की आज्ञा अपने भतीजे "जीवगुसाईंजी” को दी, ये गृहस्थाश्रम को त्याग कर आपके पास गए थे॥ आमेर के राजा मानसिंह ने श्रापके दर्शन कर प्रार्थना की कि "कुछ आज्ञा कीजिये" आपने कहा “कोई मावश्यकता नहीं।" पर बड़ा हठ और विनय से आज्ञा की कि “श्रद्धा हो तो श्रीगोविन्ददेवजी का मन्दिर बनवा दो।" राजा मानसिंह ने ( कहते हैं कि तेरह लाख रुपए में, अकबर बादशाह से शाज्ञा लेकर लाल पत्थर से कि जिससे उन्हीं दिनों में संवत् १६२१ । १६३१ में अकवरावाद (आगरे) का किला बन रहा था) बनवा दिया । राजा जयसिंह ( जयपुर ) वाराह पुराण में श्रीगोविन्ददेवजी के दर्शन का माहात्म्य सुन वृन्दावन में ना वड़ी विनती प्रार्थना कर श्रीगोविन्दचन्द्रजी को जयपुर ले गया, वहाँ आपकी एक मूर्ति बनवाकर रख गया। यह बात प्रमुहम्मदशाह" बादशाह के समय मे हुई कि जिसका राज्य विक्रमी संवत् १७७६ से १८०५ तक था।