पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/६१८

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44- -- + - + -+- भक्तिसुधास्वाद तिलक । (श्री १०८ शुकदेवजी) के तथा आपके मार्ग पर चलनेवाला ही भाग्य भाजन इस पथ को पहिचान सकता है, और प्रायः प्रेमी रसिक जन कोई कोई जानते हैं। दो० "श्रीजानकी पद कंज, सखि ! करहिं जासु उर ऐन। विनु प्रयास तेहि पर द्रवहि, सियपिय राजिवनैन ॥ १ ॥ जय जानकि मम स्वामिनी, जय स्वामी सियनाह । सियसहचरि नित चाहती, सिय सियपिय की चाह ॥ २॥" "नमो नमः श्रीजानकी, नमोनमो श्रीराम । कमलाअलि वर माँगती, युगलप्रेम निःकाम ॥३॥" "श्रीराधा जहँ पगधरै, कृष्ण धरै तहँ नैन।” (४५४) टीका । कवित्त । (३८९) हितजू की रीति कोऊ लाखनि मैं एक जाने, “राधा ही प्रधान मान पाछे कृष्ण ध्याइये । निपट विकट भाव होत न सुभाव ऐसो, उनहीं की कृपादृष्टि नेकु क्यों हुँ पाइयै ।। विधि औ निषेध छेद डारे पान प्यारे हिये, जिये निज दास निसि दिन वहै गाइये । सुखदचरित्र, सब रसिक विचित्र नीके जानत प्रसिद्ध, कहा कहिके सुना- इये ॥ ३६४ ॥ (२६५) वात्तिक तिलक । श्रीहितहविंशजी की भजनीति, लाखों में कोई एक जानता होगा, श्रीराधाकृष्णजी का ध्यान किया करते, पर प्रधान श्रीराधा जी ही को मानते थे। यह भाव निपट विकट है ऐसा सुभाव श्रीयुगल सकार की कृपा ही से होता है, आपकी ही कृपा से किसी को कुछ कुछ यह भाव मिल सकता है। __ आप विधि तथा निषेध के झंझट से निईन्छ थे, उनके प्राण प्राणनाथ ही थे जो हृदय में वसते थे, निशिदिन आप श्रीदम्पति की सेवा अति प्रीति से करते और दम्पतिकेलि का ही गान किया करते थे। सुखदाई विचित्र चरित्रों को सर विलक्षण रसिकजन सलीमाँति जानते हैं यह प्रसिद्ध ही है मैं कहाँ तक कह मुनाऊँ।

  • श्रीहरिवंशजी के पिता का भी नाम 'ध्यास" जी था। पाठान्तर “राधाई' |