पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/६१९

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mamalvanMA14-- 0 4 -4-out - de - 4-2 श्रीभक्तमाल सटीक । "श्रीराधावल्लभी" शृङ्गारभाव के प्राचार्य आपही हैं । दो०"सुमुख, सुलोचन, सरल, सत, चिदानन्द, छविधाम । पानपान, जियजीव के, सुखके सुख, सियराम ॥" सो पानतोर, मैं तोर, बुधि, मन, चित, यश, तोर सब । एक तुही तो मोर, काह निवेदों ? तोहि पिय ॥ दो इत्र पान इत्यादि लिये, बचन कर्म मन नेम । रुपिया श्री सम्मुख सदा, सादर खड़ी सप्रेम ॥ (४५५) टीका । कवित्त । (३८८) आये घर त्याग, राग बढ्यो पिया प्रीतमसों, विप्रवड़ भाग हरि आज्ञा दई जानिये । तेरी उमै सुता, व्याह देवो, लेवी नाम मेरी, इनको जो बंस सो प्रसंस जग मानिये ॥ ताही द्वार सेवा बिसतार निज भक्तन की प्रगतिन गति, सो प्रसिद्ध पहिचानिये । मानि प्रिय बात गहगहों सुख लहौ सब, को कैसे जात यह मत मन श्रानिये ॥३६५ ॥ (२६४) वार्तिक तिलक। आप देवनन्द (सार सहारनपुर) के वासी, व्यासजी नाम गौड़ ब्राह्मण तथा श्रीतारा देवी के पुत्र थे। आपके पिता बादशाह के नौकर भारी अधिकार वाले थे। श्रीनृसिंह भगवान की कृपा से दम्पति श्रीताराव्यास के पुत्र अर्थात् इन्हीं श्रीहितहरिवंशजी का जन्म, विक्रमी संवत् १५५६ में हुआ । रुक्मिणि नाम बी से आपके दो पुत्र और एक कन्या हुई, जिसके विवाह से श्रीकृपा से शीघ्र भार रहित होकर आप घर छोड़ श्रीवृन्दावन पाए, श्रीयुगलसार के चरणों में अधिक अनुराग बढ़ा, विशेषतः श्रीराधाजी के पदकंज में जिनकी कृपा अपार हुई। एक ब्राह्मण बड़भागी को प्रभु ने स्वप्न में श्राज्ञा की कि “हित- हरिवंशजी को मेरी आज्ञा सुनाके तुम अपनी दोनों लड़कियाँ व्याह दो, इनसे जग में प्रशंसनीय वंश होगा यह विश्वास करो, मैं उन्हीं के द्वारा निज भक्तों को भक्ति वृद्धि और वद्ध जीवों को कल्याण