पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/६२५

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- IN- श्रीभक्तमाल सटीक । जानि पति पोषति नबीन है ॥ सेवासों छुटाय दई, अति अनमनी भई, गई भूख बीते दिन तीन तन छीन है । सब समझाचे, तब दंड को मनावे, अंग आभरन बेंचि साधु जै यों अधीन है ॥३६॥ (२६०) वात्तिक तिलक । - सन्तों को सुख देनेवाले (श्रीव्यासजी) सन्तों को प्रसन्न रखने के अर्थ श्रीभगवत्प्रसाद साथ ही (पंगत में) पाया करते थे । सब प्रकार प्रवीण स्त्री परसा करती थी, यह सेवा उसी की थी। एक दिन दूध परसने में मलाई फिसलकर आपके पात्र में आ गिरी, आपको नवीन सन्देह हुआ कि पति जानकर विशेष पोषण मेरा इसके चित्त में आया, ऐसा सोचकर आपने उस पर बड़ा क्रोध किया। वह सेवा उनसे आपने छुड़ा दी, सुशीला बड़ी अनमनी हो तीन दिन तक भूखी रह गई। उन्हें तनक्षीण देख सबने श्रीभक्तजी को समझाया, तब आपने उन्हें यह दंड किया कि वह सब भूषण बेंचके सन्तों का एक भंडारा करदें ॥ दो० "तव निज भूषण बेंचिकै, नारी अति हरषाय । सन्तसमाज बुलाइक, सादर दियो खवाय ॥" तब आपने उनको फिर सेवा दी। (४६२ ) टीका । कवित्त । ( ३८१) सुता को विवाह भयो, बड़ी उत्साह कियो, नाना पकवान सब नीके पनि आये हैं । भक्तनि की सुधि करी, खरी अरबरी मति, भावना करत भोग सुखद लगाये हैं ॥ श्राय गये साधु, सो बुलाय कही पावै जाय, पोदनि बँधाय चाय कुंजनि पठाये हैं । बंसी पहिराई, द्विज भक्ति ले दृढ़ाई, संत, संपुट ® मैं चिरैया दे, हित सों बसाये हैं ॥३७० ॥(२५६) वात्तिक तिलक। आपकी लड़की के विवाह में, बड़े उत्साह से बारात के लिये नाना प्रकार के अच्छे अच्छे पकवान घरवालों ने बनवाए । श्रीव्यास- जी ने देखे । उन सबको सन्तों के योग्य समझकर आपकी भक्ति है "सम्पुट"-जिस उन्चा में ठाकुरजी को रखकर बटुआ मे घरते है।