पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/६२६

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६०७ AMMetane N mamtaranakaratundamerarmer भक्तिसुधास्वाद तिलक। वती बुद्धि चंचल हो विचारने लगी, पापने भावना में भगवत् को भोग लगाकर चुपके से सन्तों भक्तों को बुलाबुलाकर कुछ को तो भोजन करा दिये और औरों को बड़ी बड़ी गठरी बंधा पारस दे दे दिये, वरन कुंजों में भेज भेज दिये। परिवारवालों को बारात के लिये पुनः सामाँ नहीं बनवानी पड़ी वरन् "मिली साजु जैसी की तैसी॥" एक दिन एक वंशी सोने व चाँदी की श्रीकिशोरजी के हाथों में वारण कराते समय श्रीअंगुली कुछ छिल गई. लहू निकल आया। श्रीव्यासजी बहुत पछताए और शीघ्र ही जल से आई वन (भीगा कपड़ा) श्रीअंगुलियों में बड़े प्रेम से बाँधा । दृढ़ भक्ति तथा माधुर्य भाव की जय ।। 'पश्चिम देश के एक ब्राह्मण आपके यहाँ सीधा ले अलग रसोई करते पानी चमड़े के छागले में भरके काम में लाते, आपने उनको नए जूते में भरके घी दिया, और विजदेवता के क्रुद्ध होने पर यह उत्तर दिया कि "जिस धातु का आपका जलपात्र है उसी धातु का तो यह धृतपात्र भी है विप्र- जी ललित और भक्त हो भगवत्प्रसाद पाने लगे। यो उनको भक्ति में आपने दृढ़ कर दिया। एक सन्त श्रीयुगल सार को गीत बड़ी अच्छी भाँति से सुनाया करते थे। इसलिये आप उन्हें जाने के समय बराबर प्रेम से रोक लिया करते थे। एक दिन उस सन्त ने हठ करके अपने ठाकुर का बटुआ माँगा, आपने श्रीशालग्रामजी के बदले एक गौरैया चिड़िया उनके सम्पुट में रखकर बदधा में धरके उनका बटुया उनके हाथों में दिया। मार्ग में जब श्रीयमुनातट पूजने को सन्त ने बटुभा खोला तो चिड़िया श्रीकृपा से जीती हुई निकलकर फ से उड़ गई । साधु देवता लौटकर आपसे पूछने लगे “मेरे ठाकुरजी उड़ आए हैं।" आपने कहा "देखलूँ।" आप मन्दिर में से आकर कहने लगे कि "हाँ, वृन्दावन से नहीं जाया चाहते।" सन्त प्रसन्न हो प्रेम से श्रीवृन्दावन में बसे । प्रेम धन्य, कृपा धन्य, धामनिष्ठा धन्य। "वहाँ ठाकुरजी की उंगली में अभी तक भोगे कपड़े के बाँधने की परम्परा चली आती है।