पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/६२७

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६०८ nang- श्रीभक्तमाल सटीक! ( ४६३ ) टीका । कवित्त । ( ३८० ) सरद उज्यारी रास रच्यो पिया प्यारी, तामें रंग बढ्यो भारी, कैसे कहिके सुनाइये । प्रिया अति गति लई, बीजुरी सी कोधि गई, चकचौंधी भई छवि मंडल में छाइयै ॥ नूपुर सो टि टि पखौ, अरबखो मन, तोरिक जनेऊ, कसो वाही भाँति भाइयै । सकल समाज में यों कह्यो “आज काम आयौ, ढोयो हौं जनम," ताकी वात जिय आइये ॥ ३७१ ॥ (२५८) वात्तिक तिलक । एक शरदपूनो की रात को रास होरहा था, समाज में प्रेम रंग बहुत बढ़ाचढ़ा था, वर्णन कैसे हो सके। श्रीपियाजी ने आवेश से ऐसी गति ली किमण्डली में मानों विजलीसी चमक उठी। ऐसा प्रकाश हो गया, सवकी आँखों में चकाचौंध हो गया । परन्तु श्रीमियाजी का नूपुर (धुंघुरू) टूट गया, दाने छितरा गए। आपका मन चंचल हुश्रा, शीघ्र ही आपने अपना जनेऊ तोड़कर उससे ठीकठाक कर चरण में धारण करा दिया, और उस भरे महात्मामों के समाज में बोले कि "यज्ञोपवीत के भार को जन्म भर ढोया, पर वह आज काम आगया।" (४६४) टीका । कवित्त । (३७९) गायो “भक्त इष्ट अति," सुनिके महंत एक, लैनकों परीच्छा प्रायो, संग संतभीर है। भूख को जताचे, बानी ब्यास को सुनावै, सुनि कही भोग आव इहाँ, मान हरि धीर है । तब न प्रमान करी, संकधरी, लै प्रसाद प्रास दोय चार,उठेमानों भई पीर है। पातर समेट लई “सीत करि मोकों दई, पावौ तुम और," पाच लिये, हग नीर है ।।३७२॥ (२५७) वात्तिक तिलक । श्रीप्रियादासजी कहते हैं कि श्रीनाभास्वामी ने जो अपने छप्पय (मूल ६२) में यह कहा कि "भक्तइष्ट अति व्यासकें,"सो सुनकर एक महन्तजी श्रीव्यासजी की परीक्षा लेने आए, उनके साथ सन्तों