पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/६२८

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++++Ind i a +++ + mar + m a +PAM भक्तिसुधास्वाद तिलक ! की भीड़भाड़ भी थी। श्रीव्यासजी को सुनाकर महन्त ने कहा "मैं भूख से अतीव पीड़ित हूँ।" आपने कहा “भोग का थार जा चुका है, तनक धीर धरिये, पंगति हुधा ही चाहती है।" यह सुन महन्त को इनके 'भक्तइष्ट होने में शंका हुई श्रीनाभा स्वामी के वचन को प्रमाण न माना, पुनः “भूख भूख” वोल उठे। श्राप तो सन्तों में वस्तुतः श्रीहरि का भाव रखते थे ही, आपने चटपट कहा कि "हाँ, भोग आता है", यह कह आपने भोग मँगा ही दिया। महन्तजी ने प्रसाद केवल दो चार ग्राम पाकर, पेट में पीड़ा के अोढर से, छोड़ दिया। श्रीव्यासजी ने उसको भागवतप्रसादी मानकर अपने पाने के अर्थ पत्तन ममेट के रख लिया, और बोले कि “आपने बड़ी कृषा की जो मेरे लिये प्रसादी कर दी। पर आपने पूर्ण होके पाया नहीं, सो और भोग भाता है, कृपाकर आप अवश्य पाइये ।" अापका यह निश्वल दृढ़ भाव सन्तों में देख, महन्तजी के नेत्रों में अश्रु भर पाए, पाँव पकड़कर कहने लगे कि “मैं परीक्षा लेने भाया था वास्तव में आप भगवद्भक्तों को अति इष्टदेव मानते हैं, श्रीनामा स्वामी ने यथार्थ लिखा है ।। चौपाई। "साधु कह्यो तब भरो हुलासा । सत्य, व्यास ! तुम भवानन्दासा ॥" (४६५) टीका । कवित्त । (३७८) भये सुत तीन, बाँट निपट नवीन कियों, एक ओर सेवा, एक और धन धस्सों है। तीसरी जु ठौर श्याम बंदनी औ छाप धरी, करी ऐमी रीति, देखि बड़ी सोच पखौ है । एक ने रुपैया लिये, एक ने किसोर जू कों,श्री "किसोरदास" भाल तिलक लै कसौ है । छापे दिये स्वामी हरिदास, निसि रास कीनों, वही रास ललितादि गायो मन हखो है ॥ ३७३ ॥ (२५६) वात्तिक तिलक। श्रीव्यासजी के तीन लड़के थे उनके लिये आपने पूँजी की वाँट बड़ी विलक्षण (नए ढंग की) की और तीनों से कहा कि "जिमका