पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/६२९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

६१० श्रीभक्तमाल सटीक । जो जी चाहै इन तीनों में से सो सोही बे लेवे।" एक (रासदास ) ने धन रुपए लिये, दूसरे ( विलासदास) ने सेवा (श्रीकिशोर ठाकुर- जी को), और तीमर ने जिसका नाम श्रीकिशोरदास था स्यामवंदनी और छाप तिलक माथे चढ़ा लिया। स्वामी हरिदासजी से छाप धारण कराकर श्रीकिशोरदासजी हरिकृषा से भजन में मग्न हुए। एक दिन श्रीकिशोरदासजी स्वामी श्रीहरिदासजी तथा श्रीव्यास- देवजी के साथ यमुनाजी के तट गए और वहाँ अपना बनाया एक भजन रहस्य का गा सुनाया। उसी रात को श्रीव्यासजी ने दिव्य रहस्य में उसी पद को श्रीललिताजी को गाते सुना । श्रीव्यासजी की और श्रीकिशोरदासजी की जय ! जय जय !!! (११४) श्रीजीवगुसाईंजी। ( ३६६ ) छप्पय । ( ३७७ ) (श्री) “रूप” "सनातन" भक्तिजल, "जीवनसाई सर गंभीर ॥ वेला भजन, सुपक, कषाय न कबहूँ लागी। वृन्दाबन दृढ़बास जुगल चरननि अनुरागी॥ पोथी लेखन पान अघट अक्षर चित दीनौ । सदग्रंथनि को सार सबै हस्तामल कीनौ ॥संदेह ग्रंथि छेदन समर्थ, रस रास उपा- सक परम धीर। (श्री) “रूप” "सनातन" भक्तिजल, "जीवनसाईसर गंभीर ॥६३॥(१२१) वार्तिक तिलक ! श्रीरूपजी और श्रीसनातनजी की भक्तिरूपी जल के, उनके भतीजे तथा शिष्य श्रीजीवगुसाईजी श्रीहरि कृपा से गम्भीर सरोवर के सरिस हुए, अर्थात् उन दोनों की भक्तिरूपी जल इनके हृदयसर में भर गया। उस रस के बेला (मर्जादा, घाट) सम श्रीभगवद्भजन की परिपक्कता (सिद्धता) को जानिये । श्रीजीवगुसाईजी की भक्तिरूपी जल में कषाय (काई) कदापि नहीं लगी।