पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/६३०

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Navratrume-M antrvasna भक्तिसुधास्वाद तिलक। श्राप पुस्तक लिखने में अति प्रवीण दत्तचित चमत्कार युक्त थे अर्थात् अति ललिताक्षर अति शीघ्र अति शुद्ध अति स्पष्ट तथा एक पृष्ठ लिखके सूखने को रख दूसरे पत्रा के पृष्ठ को लिखकर फिर पूर्व पत्रा के पृष्ठ को लिखने थे, परन्तु एक अक्षर घटबढ़ नहीं होता था। वेद, पुराण, शाख, स्मृति और संहिताओं के भाव समझने में, सिद्धान्त प्रमाण जानने में आपने पूरा चित्त लगाया। ___ सच ऐश्वर्य और संपत्ति तृणसम परित्याग करके श्रीवृन्दावन में आके दृढ़ निवास किया। श्रीयुगलसार के चरणों के बड़े भारी अनुरागी हुए। सब सद्ग्रन्थों के सार को आपने ऐसा अभ्यास और मनस्थ किया था कि जैसे मनुष्य अपनी हथेली पर के आँवले को सम्पूर्ण प्रकार से रेम्वा रेखा भली भाँति देखता है । सन्देहरूपी गिरहों को खोलने में श्राप परम समर्थ, महावैराग्यवान, शान्त, बड़े धीर, तथा रसन और परम रहस्योपासक थे॥ आप एक दिन बहुमूल्य पाटाम्बर पहने थे, देखकर श्रीरूपसनातन- जी ने कहा "विरक्त कहलाकर यह वच?" आपने उसी घड़ी किसी को दे डाला और, ग्राम के बाहर श्रीयमुनाजी के तीर कुटी बनाकर भजन में भग्न रहने लगे । आपकी वृत्ति तथा प्रेम देखकर, श्रीरूप और सनातनजी ने विशेष शिक्षा दी और अत्यन्त कृपा की 1 गुप्त रखने की आबा दी, पर आपने सबके हित के लिये प्रगट कर दिये ।। (४६७) टीका । कवित्त । (३७६) किये नाना अन्थ, हृदै अन्थि दृढ़, छदि डारे, डार धन यमुना में आवै चहूँ ओर तें। कही दास "साधुसेवा कीजै" कहैं “पात्रता न,” “करों नीके" करी, वाल्यो कटु कोप जोर तें ॥ तब समझायौ, सन्तगौरव बढ़ायो, यह सवकों सिखायौ, बोलें मीठो निसि भार तें। चरित अपार, भाव भक्ति को न पारावार, किया ऊ बैराग मार कहै कौन छोरतें ॥ ३७४ ॥ (२५५) बात्तिक तिलक । आपने अनेक ग्रन्थ बनाए जो हृदय की दृढ़ ग्रन्थियों को भली