पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/६३१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

श्रीभक्तमाल सटीक । भाँति काट देते हैं। आपके पास चारों ओर से लोग धन भेजते थे और भेंट देते थे, आप आदर से लेकर श्रीयमुनाजी में फेंक दिया करते थे । शिष्य सेवकों ने धन को साधुसेवा में लगाने की वारंवार प्रार्थना की। उत्तरदिया कि “साधुसेवा करने योग्य पात्र तुम लोगों में से कोई नहीं दीखता।" एक दास ने कहा “मैं भली भाँति करूँगा।" वह अाज्ञा लेकर सन्तों की सेवा करने लगा । कुछ काल के अनन्तर एक दिन एक सन्त ने कुसमय में कुछ भोजन माँगा, इसने क्रोध करके कटु वचन कहे । तब सुनकर आपने बहुत समझाया। सन्तों की महिमा बता- कर कहा कि “इसी लिये मैं कहता था कि साधुमेवा अति कठिन है।" सदैव मिष्ठ बोलने की सबको शिक्षा दी । स्त्री का मुख नहीं देखते थे। दो. “मीगजी ब्रज में गई, ते निज भक्ति लखाय । सो पन दियो छुड़ाय सो, मीरा कथा सुहाय ॥” आपके चरित अपार हैं । आपकी भाक्तिभाव का पार कौन पा सकता है । वैराग्य धारण करने पर भी. आपकी गूढ़वृत्ति भावभक्ति को पहुँचना सहज नहीं। एक परीक्षित कृपापात्र को कुटी सौंपके श्राप वृन्दावन के कुंजों में प्रेममत्त परम अकिंचन फिरने लगे । श्रीवृन्दावन से कहीं अन्यत्र रात्रि को न बसने तथा बड़ी भारी पाण्डित्य की प्रशंसा सुनकर बादशाह (अकबर) ने थोड़ी घड़ी के लिये सत्संग के निमित्त, घोड़ों के रथ पर आगरे में बुलाकर फिर रथ पर डाक ही द्वारा उसी दिन श्रीवृन्दावन पहुँचा भी दिया। बादशाह के बड़े आग्रह पर यह आज्ञा की कि श्रीवृन्दावन में एक बड़ा भारी पुस्तकालय कर दो कि जिसमें सब वेद, पुराण, उपपुराण, स्मृतियाँ, शास्त्र और संहिता आदि सब प्रकार की संस्कृत पोथियाँ संगृहीत हो । बादशाह ने वैसा ही किया ॥

  • श्रीमीराजी ने पूछा "श्रीकृष्णचन्द्र के अतिरिक्त यहां पुरुप और कौन है।"

("श्रीमीराबाईजी" की जीवनी देखिये)