पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/६४०

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M era JainmantrangHin-Hom - uARE 44.pine भक्तिसुधास्वाद तिलक । संसार से प्रति विरक्त, और प्रभुरूप माधुरी के अति ही अनुरक्त थे, भक्त भूपों के साथ में मिले हुए उसी माधुरी का स्वाद लेते थे। मानसी सेवा ही का चिन्तवन आपका आहार था, मन की वृत्तिरूप दृष्टि से गौर श्याम युगल स्वरूप ही को निहारते रहते थे। आपकी अगम्य दशा को मैंने अपनी बुद्धि के प्रमाण ही भर अनु- मान करके बखान किया है, आपके हृदय में अथाह प्रेमरंग भरा था, उसको रस रूप संत ही जानते थे। (१२४) श्रीरसिकमुरारिजी। (४७८) छप्पय । (३६५) (श्री) "रसिकमुरारि" उदार अति, मत्त गजहिं उप- देश दियौ ॥ तन, मन, धन, परिवार, सहित, सेवत सन्तन कहँ । दिव्य,भोग, आरती, अधिक हरिहूँ ते हिय महँ॥ श्रीवृन्दाबनचन्द श्याम श्यामा रँग भने । मगन प्रेम पीयूष पयध परचै बहु दीने ॥श्रीहरिप्रिय “श्यामानन्दबर" भजन भूमि उडार कियो। (श्री) “रसिकमुरारि" उदार अति, मत्त गजहिं उपदेश दियौ ॥५॥ (११८) वात्तिक तिलक। श्रीसिकमुरारिजी अतिशय उदार हुए । अापने मतवाले हाथी को ज्ञानभक्ति उपदेश देकर अपना शिष्य कर लिया, और उदार ऐसे हुए कि परिवार सहित तन मन धन जन से सन्तों की सेवा करते थे, कहाँ तक कहा जाय हरिभक्कों में श्रीहरि से भी अधिक भाव हृदय में मान, । दिव्य भोग अर्पण कर, भारती किया करते थे। श्रीवृन्दावन युगलचन्द श्यामा श्याम के रंग में भीगे, प्रेमपीयूष पयोधि मैं मग्न रहते थे ।।