पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/६४१

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श्रीभक्तमाल सटीक । शेर। "होंठ पर नाम वही, चित्त वहीं देह कहीं। हाथ में कंज चरण, जाप वही प्रापवहीं ॥३॥ (रूपकला) और बहुत से परिचय भी दिये। अपने गुरुदेव श्रीहरिप्रिय "श्यामा- नन्द" जो की श्रेष्ठ भजनरूपी भूमि का उद्धार किया। श्रीरसिकमुरारिजी ऐसे उदार हुए कि दुष्ट राजा की छीनी हुई भूमि को उद्धार किया, हरि- सेवा में लोटा लिया । अपना तन मन धन सब कुछ सन्तों ही का समझते थे। (४७९) टीका । कवित्त । (३६४) रसिकमुरारि साधुसेवा विसतार कियो, पावै कौन पार, रीति भाँति कुछ न्यारिय। संतचरणामृत के माट गृह भरे रहैं, ताही को प्रनाम प्रजा करि उर धारियै ।। आवै हरिदास, तिन्हैं देत सुखराशि जीभ एक, न, प्रकाशिसके, थके सो विचारिये । करें गुरु उत्सव, लै दिन मान सबै कोऊ द्वादस दिवस जन घटा लागी प्यारिये ॥ ३८४ ॥ (२४५) वात्तिक तिलक । श्रीरसिकमुरारिजी ने संत-सेवा का बड़ा ही विस्तार किया। पाप- की अलौकिक रीति भाँति का वर्णन कर कौन पार पा सकता है। गृह में सन्तों के चरणामृत के माट (पात्र) भरे हुए वेदिकाओं पर रखे रहते, उन्हीं की पूजा, और उन्हीं को प्रणाम, हृदय में भाव धारण करके, किया करते थे। अापके स्थान में अनेक भगवदास आते थे, उनका सत्कार कर, अति भारी सुख दिया करते थे। आपकी अनूठी प्रीति रीति कभी एक जीभ से प्रकाश नहीं हो सकती, विचार कर मन थक जाता है । जिस दिन गुरु उत्सव करते थे, उस दिन समस्त जीवमान का भोजनादिक से सत्कार करते थे और संत जनों की घटा (समूह) बारह दिवस (दिनों) तक छाई रहती थी।