पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/६४२

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i ma Hit.... An .... .. - dutta + a. . . . bhumikant- भक्तिसुधास्वाद तिलक । (४८०) टीका । कवित्त । (३६३) संतचरणामृत को ल्यावो जाय नीकी भाँति, जी की भाँति जानिये को दास ले पठायौ है। मानिके बखान कियौ लियो सब साधुन को, पान करि बोले “सो सवाद नहीं आयौ है" ॥ जिते सभाजन, कही चाखौं देहु मन कोऊ महिमा न जानै कन, जानी छोड़ि अायौ है । तूली, कही "कोड़ी एक ग्यो,” प्रानो, ल्यायो, पीयो, दियो सुख पाय, नैन नीर ढरकायौं है ।। ३८५ ॥ (२४४) वात्तिक तिलक। एक दिवस, भंडारे में बहुत संत प्रसाद पा रहे थे, आपने एक शिष्य सेवक के जी की (हृदय की) गति जानने के लिये आज्ञा दी कि “अच्छे प्रकार से सब संतों का चरणामृत उतार लायो।" चरणामृत लाकर उसने कहा कि “मैं सब संतों का चरणामृत ले आया हूँ" श्राप पान कर बोले कि “क्या कारण है कि जैसा स्वाद नित्य पाता था वैसा नहीं आया।" जितने लोग सभा में बैठे थे उन सबों को भी चरणामृत देकर बोले कि “मन को एकाग्र कर पान करो, कहाँ वह स्वाद है।"वे विचारे चरणामृत की महिमा और स्वाद किंचित्भी नहीं जानते थे क्या बताते। आप तो परमनिष्ट थे, आपने जानलिया कि किसी सन्त का चरणामृत लेते में छोड़ दिया है। पूछने से वह कहने लगा कि "हाँ, एक कोदी वेषधारी तो रह गया है," आपने श्राज्ञा दी कि "उनका भी ले आओ।" फिर उनका भी मँगाके जब आपने चरणामृत लिया, तब सुख स्वाद पाने से श्रापके नेत्रों से प्रेमाश्रु झरने लगे। जय ! जय !! (४८१) टीका । कवित्त । (३६२) नृपति समाज मैं, निराजमान भक्तराज, कहैं, वे विवेक, कोऊ कहनि प्रभाव है । तहाँ एक ठौर साधु भोजन करत, गैर देवौ दूनी सोंटा संग, कैसे आवै भाव है ॥ पातरि उठाय श्रीगुसाईं पर डारि- दई, दई गारी, सुनी आप बोले देख्यो दाव है । सीथ सौं विमुख - आपके एक भडारे मे वारह बड़े बड़े महाराजा आज्ञा मे उपस्थित थे ।