पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/६४३

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............श्रीभक्तमाल सटीक । 11 . . . . . . मैं तो, आनि मुख मध्य दियो, कियो, दास दूर, सन्तसेवा में न चाव है ।। ३८६ ॥ (२४३) वात्तिक तिलक । किसी दिवस कई एक राजा भोर सज्जनों के समाज में भक्तराज श्री- रसिकमुरारिजी बिराजे हुए भक्तिविवेकमई वार्ता कह रहे थे, वे सब श्रोता विवेक को ग्रहण करते थे, क्योंकि आपका कथन बड़ाही प्रभावयुक्त था। उसी समय सबसन्त इकट्ठे भोजन प्रसाद पाने को विराजे थे उनमें से एक वेषधारी अपने सोंटे (दंडा) के लिये दूसरा पारस (प्रसाद पत्तल) माँगता था, और पनवारा पत्तल न देने से झगड़ा करने लगा, आपके भण्डारी अधिकारियों को सोंटे में भाव कैसे प्राता, इससे उन्होंने नहीं दिया। खीझकर वह पत्तल प्रसाद उठा, उसने श्रीगुसाईजी के ऊपर डाल गालियाँ भी दीं सुनकर आप बोले "देखो सन्त की कृपा से मेरा कैसा अच्छा दाव पड़गया है, मैं केवल चरणामृत लेता, और सीथ- प्रसादी से विमुख था, सो इन सन्त ने लाके मुख में डाल दिया।" यह कह उसको सोंटे का और उसका भी दो पत्तल पारस दिला दिये ॥ वह दास जिसने सोंटे का पत्तल नहीं दिया तिसको उस कैंकर्य (बंदगी) से छुड़ा दिया कि “सन्तसेवा में तेरा भाव अनुराग नहीं है, क्यों जी ? सोंटे का पत्तल क्यों न दिया ? इस सोंटे से भाँग घोटकर और पीसकर सन्त तीन पारस उड़ाय जाते हैं ॥" (४८२) टीका । कवित्त । (३६१) बाग मैं समाज सन्त, चले श्राप देखि को देखत दुरायौ जन हुका सोच पखो हैं । बड़ी अपराध मानि, साधु सनमान चाहैं, "धूमितन," बैठि कही “देखौ कहूँ घसौ है" ॥ जायकै सुनाई दास, काहूके तमाखू पास सुनिकै हुलास बढ्यौ, श्रागै पानि कखों है । झूठे ही उसाँस भरि, साँचे प्रेम पाय लिये, किये मन भाये, ऐसे संका दुख : हखौ ॥ ३८७॥ (२४२)