पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/६४५

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mendmendarpa n Handigandanand श्रीभक्तमाल सटीक। श्रीरसिकमुरारिजी के गुरुदेव "श्रीश्यामानन्द" जी उस ग्राम में थे। वहाँ से आप को पत्र लिखा कि “तुम जिस भाँति हो उसी भाँति पत्र देखते ही चले पायो।"भाप प्रसाद पाते थे भाना सुनकर वैसे ही चल दिये, सत्रह कोस में श्रीश्यामानन्दजी थे, आपके मुख हाथ जूठे थे, इस से पीछे ही से साष्टांग दंडवत् कर हाथ जोड़ निवेदन किया कि प्रसाद पातेही मैं प्राज्ञा सुन वैसे ही चला आया हूँ। यह सुनकर श्रीश्यामा- नन्दनजी का हृदय कृपा प्रसन्नता से भीग गया ॥ (४८४) टीका । कवित्त । (३५९) आज्ञा पाय, अचयो लै, दै पठाये वाही ठौर दुष्टसिरमौर जहाँ, तहाँ श्राप आये हैं। मिले मुतसद्दी सिष्य, प्राइके सुनाई वात, "जावो उठि पात," यह नीच जैसे गाये हैं ॥"हमही पठाएँ, काम करि समझावै सब, मन में न आवे, जानी नह डरपाये हैं। "चिन्ता जिनि करो, हिये धरौ निहर्चितताई "भूप सुधि श्राई दिना तीन कहाँ छाये हैं" ॥३८६॥ (२४०) वात्तिक तिलक । श्रीगुरुत्राज्ञा पाय आपने आचमन किया मुँह हाथ धोये । आप को समर्थ जान, श्रीश्यामानन्दजी ने उस खल राजा के पास भेजा, जहाँ वह दुष्टसिरमौर था, वहाँ आप आये । वहाँ के कायस्थ मंत्री लोग मापके शिष्य थे, वे सब आपके पास आए और वह राजा जैसा नीच था सो सब कह उन सबों ने प्रार्थना की कि “श्राप प्रातःकाल यहाँ से चले जाइये, हमको उसके पास भेजिये, हम उसको समझाकर सब कार्य सुधार लेंगे।" उन लोगों का कहना आपके मन में नहीं आया, जाना कि ये लोग हमारे स्नेह से डरते हैं। तब शिष्यों को आपने समझाया कि “तुमलोग कुछ चिंता मत करो हृदय में निश्चित रहौ, जाकर हमारा आगमन उससे कह दो।" शिष्य लोग आपके पास तीन दिन तक रहे, इससे राजा ने इन को बुलाकर पूछा "तुम लोग तीन दिन कहाँ रहे ?" इन्होंने +१"मुतसद्दी" gair=पटवारी, मन्त्री, दीवान, श्रेष्ठ लेखक ।।