पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/६५३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

श्रीभक्तमाल सटीक । कोई पूर्व का पाप था सो प्रभु ने यह दण्ड दिवाकर शुद्ध कर दिया। चौपाई। "नहिं दुख यह रघुपति के दाया। कर्म भुगाय छुटावत माया ॥" । उधर श्रीजगन्नाथदेवजी ने सघनजी के लेने को आगे अपनी पालकी भेजी। पण्डे लोग “सधन” भक्त को पूछते पूछते आकर बोले कि “पालकी पर चढ़कर चलो," श्राप प्रभु की पालकी विचारि नहीं चढ़ते थे, पण्डे प्रभु की आज्ञा अमिट सुना, बलात्कार उस पर चढ़ा कर ले आये। श्रीसधनजी धाके प्रभु के दर्शन कर साष्टांग प्रणाम करने लगे। उसी क्षण हाथ ज्यों के त्यों हो गये, सब दुःख स्वप्न- सरीखा मिट गया। जगन्नाथजी कृषापूर्वक बोले कि "सधन | तुमने यथार्थ कसौटी दे दी, परीक्षा में उत्तीर्ण हुए, दुःख में तुम्हारा मन मलीन नहीं हुआ, अब आनन्दपूर्वक लोक में हमारी भक्ति विस्तार करौ॥" (१२६) श्रीगुसाई काशीश्वरजी। ' (४९४) टीका । कवित्त । (३४९). श्रीगुसाई कासीस्वर, आगे अवधूत बर, करि प्रीति नीला- चल रहे, लाग्यो नीको है । महामभु कृष्णचैनन्यजू की आज्ञा पाय, आये बृंदावन, देखि भायो भयो हीको है । सेवा अधिकार पायो, रसिक गोविन्दचन्द चाहत मुखारविन्द, जीवनि जो जीको है । "वह पद भाषा द्वैक जैसे तैसे गावत है, हम तुम्है गावत है सदा बेद बानी सो। हम निर्मल गगाजल सो अन्हवा तुम्है तुम रीझे सधना के वधना के पानी सो॥" "जौली मेरे सन्तन मे राख जाति-भेद' सदा, तौलौ कहाँ कैसे वह पावै सुखसार है । मेरो साधू नीच पदपकज न धोयो जौली, तौलौ सब सास्त्रन को पढबोई भार है"- श्रीजगन्नाथजी ने विप्ररूप से कृपाकर श्रीसधनजी को बता दिया कि पूर्वजन्म मे तुम काशी में विप्र पण्डित थे । एक दिन एक गऊ एक कसाई के घर से भागी जाती थी। पीछे कसाई दौडकर आया। पूछने से तुमने हाथो से बता दिया । बही गाय यह स्त्री हुई और वही कसाई उसका यह पति, जिसको पूर्वजन्म के पलटे उसने गला काटा है और उसी दोष से तुम्हारे हाथमात्र काटे गए । मैं अपने भक्तों को कर्म भुगाके पाप छुड़ा ही देता हूँ।