पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/६५४

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tumhaat 44NHIGH भक्तिसुधास्वाद तिलक । ६३५ नित ही लड़ा, भावसागर बढ़ा, कौन पारावार पावै, सुनै लागे जग फीको है ॥ ३६८ ॥ (२३१) पातिक तिलक । गुसाई श्रीकाशीश्वरजी प्रथम दशा में श्रेष्ठ अवधूतवीत वेष युक्त थे, विचरते हुए श्रीजगन्नाथक्षेत्र में आये, वहाँ रहना आपको बहुत अच्छा लगा, सो वहाँ रह गये। तदनंतर अपने गुरु महाप्रभु श्रीकृष्णचैतन्यजी की श्राज्ञा पाकर श्रीवृन्दावन में आए श्रीवृन्दावन को देख हृदय की प्यारी अभिलाषा पूर्ण हुई । रसिक- चन्द"श्रीगोविन्दजी" की सेवा पूजाका अधिकार पाया। जीव का जीवन आधार जो श्रीमुखारविन्द, सो उसका दर्शन कर नित्य ही लाड़, प्यार प्रेम करते । प्रेमभाव का समुद्र आपके हृदय में बढ़ता था, उसको वर्णन कर कौन पार पा सकता है ? आपकी दशा का बखान सुन सब संसार फोका लगने लगता है। करनाछाया, भक्तिफल, ए कलिजुगपादप रचे॥जती रामरावल्लि, स्याम, खोजी, संतसीहाँदिलहो, पा, मनो- रथ, राँका, द्यौ, जप जीहा ॥ जाड़ी, चाचांगुरू, सवाई, चाँदी, नाप । पुरुषोत्तम सों साँच, चतुर, कीता, (मनको) जिहि मेट्यौआपा॥मति सुन्दर, धीधाँगैश्रमसंसारनाच* नाहिन नचे। करुनाचाया, भक्तिफल, ए कालिजुग पादप रचे ॥४७॥ (११७) बार्तिक तिलक । वृक्षों में दो वस्तु विशेषतः परहित की ही होती हैं, एक फल, दूसरे छाया। सो करुणारूप छाया, और भागवत विषे भक्तिरूप फल, इनके संयुक्त, इन संतों को कलियुग में भगवान ने वृक्षरूप रचा, अर्थात् सब परमार्थी हुए। क "नाच"-चाल पाठान्तर