पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/६५६

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+ Narendmore- --- - - भक्तिसुधास्वाद तिलक । ही प्रवीण थे। देह के त्यागसमय में प्रथम से एक घंटा बधाकर उन्होंने यह कह स्वखा था कि “जब हम प्रभु के समीप प्राप्त होंगे, तब यह घंटा आपसे भाप बजने लगेगा।" तदनंतर झापने शरीर त्याग किया। परन्तु घंटा नहीं बजा सब शिष्यों सेवकों के मन में बड़ी चिंता हुई। श्रीखोजीजी, अपने स्वामीजी के तनत्यागसमय न थे, कुछ पीछे आये। सदों ने यह वृत्तान्त सुनाया। तब खोजीजी ने गुरु को खोज निकाला अर्थात् जहाँ पड़के गुरुजी ने देह तजा था, आपने वहाँ लेटके देखा कि "ऊपर एक बहुत सुन्दर पका हुआ आम का फल लगा है।" मन में विचार कर, उस फल को तोड़, दो टुकड़े कर, देखें तो एक छोटा सा जीव उसमें था, सो वह उसी क्षण बिला गया। और वह घंटा स्वयं बजने लगा। सबने जान लिया कि पान में के जन्तु का शरीर तज अब श्रीगुरु महाराज श्रीराम- धाम में प्राप्त हुए ॥ (४९७) टीका । कवित्त । (३४६) शिष्य की तौ जोग्यताई नीके मन आई, अजू गुरु की प्रबल ऐपै नेकु घट क्यों भई। सुनौ याकी बात “मन वातवति गति" कही सही लै दिलाई, और कथा अति रसमई ॥ 'वे तो प्रभु पाय चुके प्रथम, प्रसिद्ध, पाछे पालन्चो फल देखि इरि जोग उपजी नई। इच्छा सो सफल श्याम भक्तबस करी वही, रही पूर पच्छसब विथा उर की गई ॥४००॥ (२२६) वात्तिक तिलक। इस प्रसंग में शिष्य “खोजीजी" की अति श्रेष्ठता मन में निश्चय हुई, परंतु गुरुजी की प्रबलता में किंचित् मात्र न्यूनता क्यों हुई ? इसकी वार्ता सुनिये कि "मन की गति वायु से भी अति चपल" भगवान ने गीता आदिक ग्रन्थों में कहा है सो आपने प्रत्यक्ष दिखाकर शिष्यों को उपदेश दिया कि मन ऐसा प्रबल है इससे सदा सावधान रहना चाहिये । (“अन्ते या मतिः सा गतिः")। और दूसरी अति रसमयी वार्ता यह है कि “खोजीजी के गुरुजी