पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/६५७

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HOND0 . co. gang + + + 1440romNe putu + ++ ................ श्रीभक्तमाल सटीक । तो ध्यानयोग से प्रभु को प्राप्त हो हो चुके थे", यह प्रसिद्ध है, परन्तुं पीछे बहुत अच्छा फल देख 'यह प्रभु के अर्पण योग्य है' यह नवीन इच्छा उत्पन्न हो गई, सो इच्छा सफल करने के लिये भक्तवत्सल श्यामसुन्दर अंतयोमी ने स्वयं लीला किया किंचित हो काल में जो पूर्व प्रतिज्ञा थी सो पूर्णकर सबके हृदय का शोकदुःख नाश किया। (१२८)श्री "रॉकाजी"। (१२६) श्री “बाँकाजी"। (४९८) टीका । कवित्त । (३४५) राँका पति, बाँका तिया, बसे पुरपंढर में उर मैं न चाहनेक रीति कछु न्यारियै । लकरीन बीनि करि, जीविका नबीन करें, धेरै हरिरूप हिये, ताही सों जियारियै ॥ बिनती करत नामदेव कृष्णदेव- ज सों, कीजे दुख दूर कही "मेरी मति हारियै । चलो लै दिखाऊँ, तब तेरे मन भाऊँ,” रहे बन लिपि दोऊ थैली मगमाँझ डारियै ।। ४०१॥ (२२८) 'वात्तिक तिलक । __ "राँका" नाम के हरिभक्त, उनकी पत्नी का "बाँका” नाम पड़ा। दोनों अनुरागी "पंढरपुर” में बसते थे। प्रभु को छोड़ हृदय में किसी पदार्थ की चाह किंचित् भी न थी लोकोत्तर निहकिंचन रीति थी, सूखी लकड़ियाँ वन से वान चुन लाते, वेचकर नित्य नवीन जीविका करते थे। हृदय में श्रीहरि के रूप का ध्यान धरे रहते थे । मुख्य जीवन वही था। इन दोनों की दशा देख, श्रीनामदेवजी ने श्रीकृष्णदेवजी से विनय किया कि "हे कृपालु ! इनका दुःख नाश करिये ॥ प्रभु बोले कि "मेरी मति इनसे हार गई। कुछ लेते ही नहीं, तो क्या करूँ १ चलो, मैं तुमको इनकी सब दशा दिखाऊँ, तब तुमको मैं अच्छा लगूंगा।" प्रभु नामदेवजी को साथ लिवाकर एक थैली भर स्वर्णमुद्रा (मुहर) मार्ग में डालकर वन में छुप रहे । (४९९) टीका । कवित्त । (३४४) आये दोऊ तिया पति, पाछे बधू धागे स्वामी, औचक ही मग-

  • श्रीकबीरजी, श्रीनामदेवजी और श्रीबांकापति रॉकाजी उसी (पद्रहवी) शताब्दी में

विराजमान थे।