पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/६६२

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-0In MantrauBhan . ADAN-Harama-e-ARTHAMMAMAntoprompet- भक्तिसुधास्वाद तिलक । जो स्त्री ने कहा था सो वार्ता भास गई, बोले कि "प्रभो । जो स्त्री ने कही है वह वार्ता सत्य है, मुझे सदा अग्नि और चूल्हे ही का ध्यान बना रहता है, अर्थात् चूल्हे में अग्नि जलाके रसोई बनाय प्रभु को भोग लगाय कब संत प्रसाद पावें । प्रभो ! कृपाकरि चलिये।" सुनकर प्रसन्न हो लौट आये। आपने प्रीतिपूर्वक भोजन करा, संतों को आनन्द में मग्न कर दिया। (१३२) श्रीतिलोकसनारजी। (५०४) टीका । कवित्त । (३३९) पूरब में प्रोक, सो "तिलोक" हो सुनार जाति, पायो भक्तिसार, साधुसेवा उर धारिये । भूप के विवाह सुता, जोरौ एक जेहरि कौं,गदिवे को दियौ, कह्यौ "नीके के सवारिय" ॥ श्रावत अनंत संत औसर न पावै किहूँ, रहे दिन दोय, भूप रोस यों सँभारियै । “ल्यावौ रेपकार," ल्याये, “छाड़ियै मकर कही, नेकु रह्यो काम, आवै नातो मारि डारिये" ॥४०६॥ (२२३) वात्तिक तिलक। पूर्व देश के रहनेवाले, जाति के सुनार श्रीतिलोकजी सारांश भक्ति को प्राप्त होकर तन मन से संतसेवा में परायण थे। उस नगर के राजा की कन्या का विवाह था, अतः एक जोड़ी जेहरि (चरणभूषण) बनाने के लिये राजा ने द्रव्य देकर याज्ञा दी कि "बहुत अच्छे प्रकार से बनाकर लाभो ॥" __ आपके घर नित्य अनेक मूर्ति संत आया करते, उनकी सेवा करने में आप लगे रहते थे, जेहरि बनाने के लिये कुछ प्रोसर ही नहीं मिलता था, उसमें हाथ तक नहीं लगा सके । जव विवाह के दो ही तीन दिन रह गये, तब राजाने सक्रोध श्राज्ञा दी कि “उसको पकड़ लावो।" लोगों ने ऐसा ही किया, आपने राजा से कहा कि "मुझे छोड़ दीजिये, उसमें थोड़ा सा काम रह गया है, जो उस दिन में न लाऊँ तो मुझे मरवा , डालियगा, मेरे प्राण ले लीजियेगा। (५०५) टीका । कवित्त । (३३८) ___ आयो वही दिन, कर छुयौ हूँ न इन, “नृप करै पान बिन,"