पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/६६३

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IM A HARAu++ + + + + + +m ६४४ श्रीभक्तमाल सटीक । बन माँझ छप्यो जायके । आये नर चारि पाँच, जानी प्रभु नाँच, गदि लियो, सो दिखायो साँच, चले भक्तमाय के ॥ भूय को सलाम कियौ, जेहरि को जोरी दियो, लियो कर, देखि नैन छोड़ें न अघाय के । भई रीमि भारी, सब चूक मेटि डारी, धन पायो लै मुरारी, ऐसे बैठे घर आयकै ॥४०७॥ (२२२) वात्तिक तिलक । वही दिन (अर्थात् राजकन्या के विवाह का दिन) आ गया, पर इन्होंने तो उस भूषण के बनाने के लिये सुवर्ण को हाथ से भी नहीं छुआ। तब मन में विचार किया कि "राजा मार ही डालेगा” इससे जाकर वन में छिप रहे। राजा के चार पाँच जन इनके घरवाये । कृपासिंधुप्रभु ने अपने भक्त को सकुटुम्ब तापयुक्त जान, तिलोकमत का रूप धारण कर, अपनी चातुर्य से जहरि बनाकर, राजसेवकों को दिखा, वह चरणभूषण ले, अपने भक्त के अनुरूप आये, और राजा को जुहारकर, जेहरि का जोड़ा दिया। राजा हाथ में लेकर देखते ही मोहित हो गया, देखने से नेत्र तृप्त न हुए, बड़ा प्रसन्न हुआ, विलंब करने की सब चूक क्षमा कर, बहुत सा धन दिया। भगवान लाकर भक्त के घर में विराजमान हुए। (५०६) टीका ! कवित्त । (३३७) भोरही महोछौ कियौ, जोई माँग सोई दियो, नाना पकवान रस, खान स्वाद लागे हैं । संत को सरूप धार, लै प्रसाद गोद भरि, गये तहाँ “पावै ज तिलोक गृह पागे हैं"। "कोन सो तिलोक ?" "अरे दुसरो तिलोक मैं न” वैन मुनि चैन भयो, आये निसि रागे हैं। चहल पहल धन मस्यौ घर देखि ढखो प्रभुपदकंज जानो मेरे भाग जागे हैं ।।४०८॥ (२२१) वात्तिक तिलक ! तिलोकरूपी प्रभु ने प्रातःकाल होते बड़ा ही महोत्सव किया, जिसने जाकर जो वस्तु माँगी उसको वही दिया, नाना प्रकार के १ "सलाम" - जोहार, दण्डवत्, प्रणाम, जयहरि रामराम ॥