पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/६६६

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भक्तिसुधास्वाद तिलक। ६४७ ठगी छोड़ दो।" घाटम ने कहा "इसी धंधे से तो मेरी जीविका है।" संत ने कहा कि "अच्छा, चार वार्ता हमारी ग्रहण करौ (१) सत्य बोलना (२) साधुसेवा (३) भगवत् अर्पण किये पीछे कुछ खाना (४) और भगवत् आरती में जा मिलना ।" सुनते ही चारों बातें अंगीकार कर भगवत्मंत्र भी ग्रहण किया । श्रीगुरु के चारों उपदेश पर आप अति दृढ़ हो गये ॥ एक दिन साधु आये, घर में कुछ भी न था। खलिहान से गेहूँ चुरा लाकर संतों को भोजन कराया, परंतु भय था कि “पद चिह्नों को देखने से मैं खलिहानवाले के हाथों से कहीं अभी पकड़ा न जाऊँ।" इतने ही में बाँधीयुक्त पानी बरसा, आपकी चिन्ता मिट गई. आपने निश्चिन्तता से संतों की सेवा की। एक समय श्रीगुरु ने भगवत् उत्सव में घाटम को बुलाया उस समय में भी पास में कुछ न था, चिंतायुक्त हो, चोरी करने राजा के गृह में आये, द्वारपालों ने पूछा, तब आपने सत्य उत्तर दिया कि "मैं चोर हूँ 'घाटम' मेरा नाम है" वे सब इनका उत्तम वेष देख समझे कि "इन्होंने अपने तई इसी ही चोर कहा है," कुछ न बोले । ये जाकर घुड़साल से एक उत्तम काले (मुश्की) रंग के घोड़े पर चढ़कर चले, अश्व- रक्षकों ने रोका, फिर उनसे भी सत्य ही कहकर चले आये । श्रीगुरु-गेह की ओर चले ॥ संध्या समय एक नगर में किसी हरिमंदिर में आरती होती थी वहाँ घोड़ा बाँधकर आरती दर्शन कर भजन करने लगे । यहाँ राजा के यहाँ उस घोड़े की ढूँढ पड़ी। बहुत से लोग घोड़े के पाँव का पता लेते उसी मंदिर के द्वार पर पहुंचे । भक्तवत्सल प्रभु ने उस घोड़े का श्वेत रंग कर दिया, घाटम चढ़ के जब बाहर निकले, तव राजभृत्य लजित हो सोचने लगे कि घोड़ा तो वैसा ही है पर रंग इसका दूसरा है, अब राजा हमको दंड देगा, श्रीघाटमजी उसको भयभीत देखकर दयायुक्त बोले कि "वह चोर मैं हूँ और यह घोड़ा भी वही है, प्रभु ने मेरी रक्षा हेतु कृपाकर यह