पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/६७६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

4mindia n mommendedamdas+ in+ - + -- -+ - - - भक्तिसुधास्वाद तिलक । ६५७ घर और धन लो, तुम्हारे भर्ता यही सेवामूर्ति श्रीगोपालजी हैं, इन अपने भर्ता को लो।" वह भक्तिसंस्कारयुक्त थी ही, इससे प्रभुसेवा ही वारंवार माँगकर कहने लगी कि "मुझे प्रभु की सेवा ही दीजिये और जगत् की वस्तु तो सब क्षार हैं ! मैं इन पर सब न्यवछावर करती हूँ, और कुछ नहीं लूंगी।" (५१९) टीका । कवित्त । (३२४) दई सेवा वाहि, और घर धन तिया दियो, लियो ब्रजवास, वाकी प्रीति सुनि लीजिये । ठाकुर बिराजै, तहाँ खेलें सुत औरनि के, डारे ईटा खोहा, पलौ प्रभु पर खीझिय ॥ दिये वे विड़ारि, धलौ भोग.पे न खात हरि, पूछी कही बेई श्रावे तब ही तो लीजिये । कह्यौ रिस भरि "धूरि नीकी, भोर डारे भरि, खावी," अव हाहा करी पायो, ल्याई रीझिये ॥४१६॥ (२१३) ___ वात्तिक तिलक । इस प्रकार उसकी भक्ति देख श्रीगोपालमूर्ति उसी को दिया. और धन घर सब अपनी बी को दे, श्राप भाकर श्रीवृन्दावन में बसे। अब उस पतोहू की प्रीति सुनिये, उनकी भक्ति देख प्रभु श्रीमूर्ति से खाने और उसके साथ बोलने भी लगे। एक दिन जहाँ ठाकुर विराजे थे वहाँ औरों के लड़के इंटा धूलि डालते खेलते थे सो वह मिट्टी धूलि प्रभु के ऊपर पड़ी, तब इन्होंने क्रोध कर लड़कों को भगा दिया। पीछे, भोग का थार रक्खा, सो प्रभु ने कुछ न पाया। इन्हों ने प्रार्थना कर पूछा तो आप बोले कि “वे लड़के आवें खेलें तभी मुझको प्रसन्नता होगी।" इन्होंने प्रणय कोपकर कहा कि "जो धूलि ही आपको प्यारी है तो बड़े । भोर लड़कों को बुलाके डलवा दूंगी,अभी खाइये।" बहुत प्रार्थना किया । और लड़कों को बुला लाई, तब आपने भोजन किया और बहुत प्रसन्न हुए। (५२०) छप्पय । (३२३) कलिजुग जुवतीजन भक्तराज महिमा सब जाने 1. जगत ॥ सीता, माली, सुमंति, साभाँ,प्रभुता, उमा भटि,