पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/६७८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

भक्तिसुधास्वाद तिलक। - tdun it - - - - - २१ श्रीगंगाजी . २६ श्रीकमलाजी २२ श्रीदेवाजी २७ श्रीदेवकीजी २३ श्रीजवाजी | २८ श्रीहीराजी २४ श्रीजेवाजी उजवा | २६ श्रीहरिचेरीजी २५ श्रीकीकीजी (१३८)श्रीगणेशदेई रानी। (५२१) टीका । कवित्त । (३२२) "मधुकरसाह" भूप भयौ, देस “ोड़" को, रानी सो "गनेसदेई" काम बाँको किया है। आवे बहु संत सेवा करत अनंत भाँति रह्यो एक साधु खान पान सुख लियौ है ॥ निपट अकेली देखि वोल्यो "धन थैली कहाँ ?" "होय तो बताऊँ सब तुम जानों हियों है"। मारी जाँघ छुरी लखि लोहू बेगि भागि गयो, भयो सोच, “जानै जिनि राजा बंद दियो है"॥४१७॥ (२१२) वात्तिक तिलक । श्रीमधुकरसाहजी ओंडछे के राजा थे इनकी रानी परम श्रीरामभका श्रीगणेशदेईजी ने भक्तिपथ में बड़ाही वाँका काम किया, आप अति प्रीति तथा अनेक भाँति से सन्तसेवा करती थीं, इस हेतु बहुत संत आया करते थे। किसी समय खान पान का सुखपाकर एक साधु वेषधारी (नाममात्र का साधु) आपके यहाँ रह गया। श्राप के यहाँ वैष्णवमात्र को रोक (परदा)न था॥ एक दिन आप अकेली विराजी थीं, उसी समय में वह साधु वेषधारी एक छुरी लिये पाया और बोला कि “धन की थैली कहाँ है?" आपने उत्तर दिया “मेरे पास जो धन आता है सो आपलोगों की सेवा में लग जाता है, थैली नहीं है, होय तो बताऊँ, मेरे हृदय को आप जानते हैं मैं धन नहीं रखती।” तथापि उस लोभी ने फिर माँगा और नहीं पाया तव जंधे में छुरी मार दी। रुधिर चलने लगा, देखकर वह दुष्ट भाग गया। श्रीगणेशजी को यह सोच हुश्रा कि “कहीं राजा न जानें, नहीं तो इसको दंड देंगे," घाव को बाँध दिया ॥