पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/६७९

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श्रीभक्तमाल सटीक । ... . han i . Mera M aulous - MA- N. (५२२) टीका । कवित्त । (३२१)। बाँधि नीकी भाँति, पौढ़ि रही कही काहूसों न, आयो ढिग राजा, "मति आवो, तियाधर्म है"। बीते दिन तीन जानी वेदन नवीन कछु, “कहिये प्रवीन मोसों खोलि सब मर्म है" ॥ टारी बार दोय चारि, नृप के विचार पलो, कालो समाधान "जिन आनौ जिय मर्म है । फिस्यों आसपास भूमि पर तन रासकरी, भक्तिको प्रभाव छाँड़ि लिया पति सर्म है ।। ४१८ ॥ (२११) वात्तिक तिलक ! श्रीभक्तिभागिनीजी उस घाव को अच्छे प्रकार बाँधकर पड़ रही किसी से कुछ कहा नहीं, जब आपके समीप में आपके पति मधुकरसाह- जी आये तव बोली कि "आप मत भाइये मुझे स्त्री-धर्म हुया है।" तीन दिन बीते शुद्धता विचारि फिर आकर राजा ने आपको पड़ी ही देखा, जाना कि "कोई नवीन व्यथा है ।" आपसे पूछने लगे कि "हे प्रवीन प्रिये ! जो व्यथा होय सो सब मर्म खोलकर कहो।” सुनकर आपने दो चार बेर टालमटोल किया, राजा ने नहीं माना, तब सत्य सत्य सब वृत्तान्त कहकर समाधान करने लगी कि “श्राप कोई मन में भ्रम लाकर वैष्णवों में प्रभाव मत कीजियगा, यह कोई मेरा कर्म ही ऐसा था सो भी भोग हो गया। राजाजी भी तो परम भागवत थे, सुनकर आपकी क्षमा और भक्ति पर न्यवबावर हो परिक्रमा कर भूमि पर पड़के प्रणाम किया, श्रीभक्ति का प्रभाव हृदय में धारण कर स्त्री पति की लज्जा छोड़ श्रीगणेशदेईजी में भक्ति का गौरख मानने लगे॥ श्रीगणेशदेईजी की एक और उत्तम कथा जो बुंदेलखण्ड देश के सब सज्जनों को विदित है सो सुनिये। श्रीमधुकरसाहजी श्रीकृष्णचन्द्रजी के उपासक थे, और श्रीगणेशदेई राजाधिराज श्रीरामचन्द्रजी की उपासना युक्त थीं । इससे जब तब श्रीअयोध्याजी आती थीं। एक बार श्रीअयोध्याजी आई, प्रेमवश कुछ दिन रहगई, श्रीमधुकरसाहजी का, भक्तिसम्बन्ध से, आपमें बड़ा स्नेह था, इससे कई पत्र लिखे, पान्तु धाम के स्नेहविवशता से नहीं गई॥