पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/६८०

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M pi gnant m hiMEMONDAR Annapurt भक्तिसुधास्वाद तिलक । तब राजा ने लिख भेजा कि “अब अपने प्रभु को साथ ही लिवाकर अाना।" पत्र बाँचके गणेशदेईजी ने प्रभु से प्रार्थना की कि "देखिये राजा क्या लिखते हैं॥"लिदान कुछ दिल श्रीअवध में और रहीं फिर यह विचार किया कि “प्रभु के तो मेरे सरीखी बहुत किंकरी हैं किस किस के साथ में जायेंगे, परन्तु मैं भी ऐले अोछड़े नहीं जाऊँगी, श्रीसरयूजी में प्रवेश कर प्राण त्याग कर दूंगी।" ऐसा निश्चय कर स्नान के बहाने से श्री सरयूजी में डून ही तो गई। उसी क्षण भक्तवत्सल कृपासिंधु श्री- रघुनंदनजी श्यामसुन्दर किशोरमूर्ति मणिविग्रह से आपके अंक में श्रा । गये। भोर गणेशदेईजी को तीर पर खड़ी कर दिया। फिर उस क्षण का प्रेमानन्द श्रीगणेशदेईजी का कौन कह सकता है ? जहाँ आपकी स्थिति थी वहाँ प्रभु को लाकर विराजमान कर महाउत्सव किया। दान द्रव्य लुटाना, बाजा बजवाना इत्यादिक अानन्द की धूम मची और सब वृत्तांत श्रीमधुकरसाहनी को पत्र द्वारा निवेदन किया ।। राजा सुनकर बहुत द्रव्य और सेना समेत श्रीभवध आकर प्रभु के दर्शन कर कृतार्थ हुया। प्रभु की प्रेरणासे श्रीगणेशजी ने श्रीजानकी जीवनजी को इस प्रकार से थोबड़े लिवा ले चली कि पुष्य वा पुनर्वसु नक्षत्र में वहाँ से प्रभु पधारे, जब तक पुष्य रहा तब तक पधारती फिर २६ दिन मार्ग में एक स्थल में स्थित रहती, फिर सचाई- सवें दिन पुष्य नक्षत्र में चलती इसी भाँति केवल पुष्य ही में चलकर ओड़छे गई, वहाँ अकथनीय आनन्द उत्सव से प्रभु विराजमान हुए। पीछे आपके विग्रह अनुरूप श्रीजानकीजी श्रीलक्ष्मणजी श्रीहनुमानजी आदिकों की मूर्तियाँ प्रतिष्ठा करके समीप में पधराई गई। कोई धागे बैठता नहीं था। श्रीगणेशदेईजी का यह नियम था कि पूजा अपने हाथ से करती थीं। वहाँ के बहुत लोगों के मन में ऐसी शंका होती थी कि "ये प्रभु रानी को स्वयं सरयूजी में नहीं मिले, किन्तु कोई यत्न से ले - कोई महात्मा पुष्य नक्षत्र और कोई पुनर्वसु बताते हैं ।