पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/६८३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

44- 4 mM++ श्रीभक्तमाल सटीक । गार (बन्दीघर) में डाल दिया। उस वणिक (सेठ) को भोजन देने एक लौड़ी (टहलनी) कारागार में जाती थी, देखकर उप्त दासी के हृदय में बड़ी दया आई, तब बहुत अकुलाके उसको एक उपाय बताया कि तुम बड़े ऊँचे स्वर से "राधावल्लभ श्रीहरिवंश।" इस प्रकार से नाम जपो, जब पूछा जाय, तब कहना कि "मैं श्रीहरिवंशजी का शिष्य हूँ।" उसने ऐसा ही किया ॥ श्रीनखाहनजी ने पूछा कि "तुम यह नाम क्यों जपते हो?" उसने कहा "मैं श्री हरिवंशजी का शिष्य हूँ।" राजा नखाहन बड़े ही गुरुनिष्ठ थे। सुनते ही धन देकर कहा कि "श्रीगुसाईजी से यह बात मत कहना।" वह वैश्य घर में श्रा, शीघ्र ही श्रीवृन्दावन जाकर श्रीहित- हरिवंशजी का शिष्य हो गया, और अपना वृत्तान्त भी कहा कि "नरवाहनजी ने लाखों का धन लेकर मुझे बन्दी में डाल दिया था, सो मैंने आपका नाम लिया और झूठ ही कहा कि "आपका शिष्य हूँ,” तब धन देकर मुझे घर भेज दिया।" सुनकर प्रसन्न हो श्रीगुसाइजी ने दोनों को प्रभुपदप्रेमम दिया। श्रीनरवाहनजी की जय ॥ आपकी गुरुभक्ति पर रीझकर इन्हीं की छाप देकर दो पद बनाकर अपनी “चौरासी” (ग्रंथ) में रख दिया। (५२५) छप्पय । (३१८) श्रीमुख पूजा संत की, आपुन ते अधिकी कही। यहै बचन परमान “दास गाँबरी” “जटियाने" भाऊ। "बूंदी" "बनियां राम" "मंडोते" "मोहनदारी" "दाऊँ"। "माडौठी" "जगदीसदास," "लछमन "चटुथावल" भारी। "सुनपथ" में "भगवान, सबै "सलखान" "गुपाल" उधारी ॥ “जोवनेर" "गोपाल" के भक्त इष्टता निर्बही । श्रीमुख पूजा संत की, आपुन ते अधि- की कही ॥१०६॥ (१०८)