पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/६८४

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भक्तिसुधास्वाद तिलक। वात्तिक तिलक। भगवान ने अपने श्रीमुख से अपनी पूजा से अपने भक्त संतों की पूजा अधिक कही है । इसी श्रीमुख वचन प्रमाण मानकर इस छप्पय के कहे हुए भक्तों ने प्रभु से अधिक प्रभु के भक्तों को इष्टदेव मान पूजा सेवा की “जटियाने" में "श्रीगाँवरादासजी को इसी वचन के प्रमाण संतों में भाव था। "बूंदी" में श्री "वनियाराम" जी को भी यही भाव था। "मॅडौते" में "मोहनवारीजी" "दाऊ" जी के भी संत इष्टता का ही भाव था। “माडौठी" में "जगदीशदासजी," "चट्था- वल" में भी "लक्ष्मणभक्तजी", भारी संतसेवी,थे "सुनपथ" में "भगवान- भक्तजी,” सम्पूर्ण “सलखान” नगर को “गोपालभक्तजी" ने उद्धार किया, "जोबनेर" में "गोपालजी" की भक्तों में इष्टता का निर्वाह हुआ॥ श्लोक "आदिस्तु परिचर्यायां सर्वाङ्गैरपि वन्दनम् । मदतपूजाभ्यधिका सर्वभूतेषु मन्मतिः॥॥ नैवेद्यं पुरतो मह्यं चक्षुषा गृह्यते मया ॥ रसं वैष्णवजिह्वाग्रे गृह्णामि कमलोद्भव ॥ २॥ १ श्रीगामरी (गाँवरी )दासजी ६ श्रीलक्ष्मणभक्तजी २ श्रीवनियारामजी ७ श्रीभगवानभक्तजी ३ श्रीमोहनवारीनी ८ श्रीगोपालभक्तजी (सल.) १ श्रीदाऊरामजी श्रीगोपालजी जोबनेर के। ५ श्रीजगदीशदासजी (१४०) श्रीगोपालभक्तजी। (५२६) टीका ! कवित्त । (३१७) "जोक्ने' वास सो "गोपाल" भक्त-इष्ट ताको कियौं निर्वाह बात मोंको लागी प्यारिय। भयो हो विरक्त कोऊ कुल में, प्रसंग सुन्यो, श्रायो यौं परीक्षा लेन, द्वार पै विचारियै ।। श्राय पसौ पाय, “पाँय धारौ निज मंदिर में,” "सुंदरि न देखा मुख, पन कैसे गरियै ?" । "चलो, जिन ठारौ तिय रहेंगी किनारो, करि