पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/६८६

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nara m irtner+Anti - IIIMaint भक्तिसुधास्वाद तिलक । हाथ जोड़ सन्त से बोले “हे इष्टदेव ! आपने एक कपोल को तो कृपाकर तमाचा दिया परन्तु यह दूसरा कपोल आपके करकमल के स्पर्श से विहीन अपना अपमान मानेगा, कृपाकर थपेड़ा इस कपोल को भी दीजिये ।" क्षमाशील भक्तजी ने ऐसी प्यारी वाणी कही, सुनते ही उन परीक्षा-कारी सन्त के नेत्रों में आँसू भर आये, और उठकर चरणों में लपट के बोले कि “यह आपकी लोकोत्तर रीति की कैसे प्रशंसा करूँ, मैंने सुना कि 'आप हरिभक्तों को इष्टदेव मानते हैं सो मुझे बड़ाही आश्चर्य हुमा इसलिये मैंने परीक्षा ली । उसमें मुझे यह बड़ी भारी शिक्षा हुई कि भगवद्भक्तों को इस प्रकार मानना चाहिये और उनको ऐसा सहना चाहिये, और निष्ठायुक्त पुरुषों की परीक्षा न लेनी चाहिये ॥" सुनते ही श्रीगोपालजी अकुला के बोले "श्रजी महाराज ! मैं भाव को कहाँ पा सकता हूँ, परन्तु सन्तजन कृपा कर मुझे अपना “दास" कहते हैं, यही मेरा जीवन (ज्यारी) है।" (१४१) श्रीलाखाजी। (५२८) छप्पय । (३१५) परमहंस बंसनि मैं, भयौ बिभागी बानरौ॥ "मुरघरखण्ड निवास भूप सब आज्ञाकारी।रामनाम विश्वास भक्तपदरज ब्रतधारी ॥ जगन्नाथ के द्वार दँडौ तनि प्रभु पै धायौ । दई दास की दादि, * हूंडी करि फेरि पठायौ ॥ सुरधुनी ओघ संसर्ग ते नाम बदल कुच्छित नरौ । परमहंस बंसनि मैं, मयौ बिभागी बानरौ ॥ १०७॥ (१०७) वार्तिक तिलक । श्रीलाखाजी “वानर-वंश" में उत्पन्न होकर भी, परमहंस वंशों के सुख, सुयश, भजन, तथा सुकृत के भागी (हिस्सेदार) हुए।

  • "दादि"दाद-न्याय, दया । 1. "बानरौं"=वानरवशी ।।