पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/६९४

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+-+ MJu HamarMPHATO -+HARA + mment + भक्तिसुधास्वाद तिलक । ६७५ औ औजाई रिस भरी है । डोलत फिरत आय, बोलत "पियावौ नीर," मामी पैन जानी पीर, बोली जवीवरी है । "श्रावत कमाए, जल प्याये दिल सरै कैसे ? पियो,"यों जवाब दियौ देह शूथरा है। निकसे बिचारि “कहूँ दीजै तन डर," माना शिव पै पुकार करी, रहे चित धरी है ॥ ४२६ ॥(२००) बात्तिक तिलक। भक्तशिरोमणि श्रीनरसी मेहताजी का गुजरात प्रदेश के "जूनागढ़" में निवास था। आप नागर ब्राह्मण थे, माता पिता दोनों के तन छूट गये, घर में एक शाक्त भाई और क्रोध करनेवाली एक मारज (भौजाई) थी। एक दिन श्राप डोलते फिरते किसी ओर से आये और बोले कि "भाभी ! पानी पिला दीजिये।" सुनके उसने प्यास की पीर तो नहीं जानी, पर जरबर के बोली कि “बड़ी कमाई करके तो आते हो। चिना जल पिलाये कैसे काम चलेगा पीन लो, पीते क्यों नहीं हो।" उसका ऐसा उचर सुन, अपमाल से आपका शरीर कापने लगा। घर से निकल विचार किया कि “कहीं शरीर को तज दूं।" नगर से बाहर एक शिवालय था। उसमें जाके मानों आपने अपना दुःख शिवजी से पुकारके सुनाया । वह अपमान और शिवमहिमा चित्त में घरे हुए आप वहीं पड़े रहे। दो. "नरसी हो अति सरस हिय, कहा देउँ समतूल । कहेउ सरस शृङ्गाररस, जानि सुखनि को मूल ।। दीनी ताको रीमि के, माला नन्दकुमार। राखि लियो अपनी शरण, विमुखनि मुखदै छार ॥ जहँ जहँ भक्तन को कछु, संकट परत है पानि । तहँ तहँ आपन बीत्रि है, धरत अभय को पानि ॥ (श्रीध्रुवदासजी) (५३८ ) टीका । कवित्त । ( ३०५) बीते दिन सात, शिवधामतें न जात बार, “परै काहूँ तुच्छ द्वार, सोई सुधि लेत है"। इतनी विवारि, भूख प्यास ई टगरि, लियो

  • "जवाब"

-उत्तर ॥