पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/६९५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

. ..JA4-IIrong- MAM M 41mgital श्रीभक्तमाल सटीक। प्रगट सरूप धरि, भयौ हिये हेतु है ।। बोले “वर माँग," अज माँगियो न जानत हौं, तुम्हें जोई प्यारी सोई देवो, चित चेत है"। पखो सोच भारी, “मेरी पान प्यारी नारी, तासों कहत डरत, वेद कहै नेति नेति' है" ।। ४३०॥ (१६६) वात्तिक तिलक । आप उस सूने शिवमन्दिर में विना अन्न जल सात दिवस पड़े रहे, मन्दिर के बाहर नहीं गये, श्रीशिवजी ने विचार किया कि "कोई यदि किसी असमर्थ तुच्छ के द्वार पर भी पड़ा रहता है तो वह सुधि लेता है, और मैं तो महेश्वर हूँ।" इससे श्रीनरसीजी की भूख प्यास पहिले नाश कर फिर कृपापूर्वक स्वरूप धारण कर प्रगट हो, बोले कि “वर माँग ॥" नरसीजी ने कहा “अजी महाराज ! मैं माँगना नहीं जानता, जो आपको प्यारा हो सो दे दीजिये, वही मुझको अच्छा लगता है।" श्रीशिवजी सोच विचार करने लगे कि जो मेरा प्रियतत्त्व है सो मैं अपनी प्राणप्रिया पार्वती से भी कहते डरता हूँ, उसको वेद भी "नेति नेति" कहते हैं। (५३९) टीका । कवित्त । (३०४) "दियों में बृकासुर को वर, डर भयो तहाँ, वैसे डर कोटि कोटि यापै वारि डारे हैं। बालक न होय यह पालक है लोकनि को, मन को विचार कहा दीजै प्रानप्यारे हैं । जो पे नहीं देत मेरो बोलियो अचेत होत." दियो निज हेत तन प्रालिन के धारे हैं । ल्याये वृन्दावन रास मण्डल, जटित मनि, प्रिया अनगन बीच, लालजू निहारे हैं ॥ ४३३ ॥(१६८) वात्तिक तिलक ! .. "एक बार मैंने बृकासुर को वर दिया, उसमें मुझे पीछे भारी डर का सामना हो गया, पर वैसे डर इस पर कोटिन न्यवछावर हैं, क्योंकि यह बालक नहीं है, बरत लोकों का पालक और निस्तारक है।” मन में और विचार किया कि “प्रभु (हरि) मुझको प्रिय हैं उन्हीं को दूं, जो नहीं देता तो मेरा वचन वृथा होता है ।"