पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/६९७

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६७८ Hd .....100MBONN.... . . . . . . न.14004144 श्री भक्तमाल सटीक । नरसी सखीजी श्रीलालजी को देखकर निहाल होगई, लालजी की भी. दृष्टि इनके ऊपर पड़ी, जाला कि यह कोई नवीन सखी आई है। फिर अनुमान से जाना कि यह रंगमरी शिवजी की सहचरी है। शिवजी ने भी मन्द हुसकाके लेलों की कार से जनाया कि "इसको अंगीकार कीजिये" अंगीकार कराके शिवजी इसको वहाँ से हारक लिवा लाना चाहते थे, पर यह प्राण न्यवछावर लिया चाहती थीं ॥ तद समीप आकर श्यामसुन्दरजी ने भली भाँति समझाया कि "जाओ, यही हमारा ध्यान किया करो,और जहाँ स्मरण करके बुलावोगे मैं उसी समय वहीं दर्शन दूंगा।"आज्ञा मान अपने ग्राम में तो आये परन्तु उस दर्शन के वियोग की चटपटी सी मन में लग गई। (५४२) टीका 1 कवित्त । (३०१) कीनी और न्यारी, विप्रसुता भई नारी, एक सुत उभै बारी, जग भक्ति बिसतारी है। छावै वह संत, सुख देत हैं अनंत, गुन गावत रिझावत श्री सेवा विधि धारी है ॥ जिती दिजजात दुख भयो अति गात, मान्यौ बड़ी उतपात, दोष करें न विचारी है । एतौ रूपसागर मैं नागर मगन महा, सके कहा करि चहूँ ओर गिरिधारी है ॥४३४ ॥ (१६५) वात्तिक तिलक। श्रीनरसीजी अपने भाई से न्यारा एक स्थान बनाकर रहने लगे। हरिइच्छा से एक ब्राह्मण की कन्या से विवाह हुआ, उस पत्नी से दो कन्या और एक पुत्र उत्पन्न हुए। जगत् में आपने हरिभक्ति का बड़ा ही विस्तार किया।आपके गृह में बहुत से संत आते थे। उनको अनेक प्रकार से परस्पर सुख दिया लिया करते थे । सदा प्रभु के गुणगान करते-रिझाते, और भगवत्-भागवत-सेवा विधि-विधान से किया करते थे। आपका यह आचरण देख, जितने अभक्त ब्राह्मण थे, वे बड़ा उत्पात मान दुःखी होकर आपसे बड़ा द्वेष करने लगे, क्योंकि वे सब अविचारी तो थे ही । और श्रीनपीजी तो प्रेमपथ में प्रवीण श्रीश्यामसुन्दरजी के रूपसागर में मग्न रहते थे, दुष्ट लोग क्या कर सकते