पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/६९८

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Imatarnardan भक्तिसुधास्वाद तिलक ...................६७९ हैं ? आपके तो चारों ओर श्रीगिरिधारी रक्षक हैं, बाप सर्वत्र श्रीगिरि- धारी ही को देखते थे। ( ५४३ ) टीका । कवित्त । ( ३०० ) तीरथ करत साधु आये पुर, पूछे “कोज हुंडी लिखि दये इमैं ? दारिका सिधारिखें” । जे वे रहे दूषि, कहीं जात ही अगावै भूषि. नरसी विदित साह आगे दाम डारिखे ॥ चरण पारि गिरि जावो जो लिखावो अहो कहाँ बार बार सुनि विनती न गरिने । दियो लै बताय घर, जाय वही रीति करी, सरी अश्वार "मेरे भाग, कहा वारिवे?"॥ ४३५॥ (१६४) ___ वात्तिक तिलक । एक समय तीर्थ करते कई संतजन जूनागढ़ में पाकर पूछने लगे के "हमको द्वारिका जाना है, कोई वहाँ को हुँडी कर देनेवाला है ?" यह वात, जो खल आपकी निन्दा और विरोध करनेवाले थे, उन्होंने सुनकर कहा कि “यहाँ बड़े विख्यात सेठ नरसी हैं, उनके पास जाते ही आपकी यह भूल जाती रहेगी, परन्तु इस यत्न से इंडी करेंगे कि आगे रुपये रख देना और चरण पकड़के दंडवत् कर वारंवार प्रार्थना करना, तब हुँडी लिख देंगे," और उन खलों ने आपका स्थान भी (जाकर) बता दिया। संतों ने वैसा ही किया। श्रीनरसीजी उठकर मिले, और बोले कि "मेरे बड़े भाग्य हैं कि आप आये,मैं क्या न्यवावर करूँ।" ( ५४४ ) टीका । कवित्त । ( २९९ ) सात सै रुपैया गिनि ढेरी करिदई आगे, लागे पग, “देवौ लिखि," ही बार बार है । जानो बहकाए, प्रभु दाम दै पठाये, लिला लिये मन भाये, “साह साँवल उदार है । वही हाथ दीजिय, लै कीजिये निशंक काज, गये जदुराजधानी पूछयो सो बजार है। हँदि फिरि हारे भूख प्यास मीडडारे, पुर तजि भये न्यारे, दुखसागर अपार है ॥४३६॥(१९३) यात्तिक तिलक। . संतों ने ७००) (सात सौ) रुपए आपके आगे रख प्रणाम कर