पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/६९९

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+ + 0 4 - -- ६८० श्रीभक्तमाल सटीक। बारंबार कहा “इमको हुँडी लिखि दीजिये," आपने जान लिया कि लोगों ने इनको भरमाके भेजा है । फिर निश्चय किया कि "प्रभु ही ने मेरे लिये यह द्रव्य भेजा है। सो उन्हीं को हुँडी लिख दूं।" प्रभु ही के नाम से लिख दिया और बता दिया कि "हमारे अदतिया बड़े उदार साँवलसाहु हैं उन्हीं के हाथ हुंडी देकर रुपए लेकर अपना कार्य करना। संत हुँडी लेकर द्वारिका आ नगर में 'साँवलियासाहु' की कोठी पूछने लगे। किसी ने नहीं बताई, भूख प्यास छोड़ बहुत हूँढा पर नहीं पाया, तब अति दुःखी होकर दारिका के बाहर गये। (५४५) टीका । कवित्त । (२९८) साहको सरूप कीर, आये काँधे थैली परि, "कौन पास हुँडी ? दाम लीजिये गनाय के।" बोलि उठे "दि हारे। भलेज निहारे आजु,” कही “लाज हमैं देत, मैं हुँ पाये आय के ॥ मेरौ है इको सौ बास, जान कोऊ हरिदास, लेवो सुखरासि, करो चोठी दीजै जाय के। धरे हैं रुपैया ढेर, लिख्यो करी बेर बेर,” फेरि आय पाती दई, लई गरे लायक ॥४३७॥ (१६२) वात्तिक तिलक । तब श्रीकृष्णचन्द्रजी सेठ का रूप कर, कंधे पर थैली धरे, श्राकर कहने लगे कि "किस के पास नरसीजी की हुंडी है ? अपना दाम गिना ले ! चुकाले !!" सुनकर संत बोले “अजी! हम तुमको ढूँढ़- कर हार गये, भले आये," आप बोले कि "मुझको बड़ी लज्जा हुई कि आपको इंडी के रुपये मिलने में विलम्ब हुआ। मेरा गृह एकान्त में है. कोई कोई हरिजी के दास जानते हैं, अपने रुपये लीजिये और हमारा पत्र भी नरसीजी को देकर कहना कि "वारंवार हुंडी लिखा करें, बहुत से रुपये यहाँ रक्खे हैं । • संतों ने रुपये ले द्वारिका तीर्थ यात्रा कर, लौट श्रा, नरसीजी को पत्र दिया। श्रीनरसी मेहताजी अति हर्षित हो पत्र लेकर संतों को गले । से लगाकर मिले ॥