पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/७००

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६८१ भक्तिसुधास्वाद तिलक । (५४६) टीका । कवित्त । (२९७) "देखि पाये साह ?"दौरि मिले उत्साह अंग, वेऊ, रंग बोरे सन्त, संग को प्रभाव है । टुंडी लिखि दई, दाम लिये सो खवाय दिये, किये प्रभु पूरे काम, संतान सों भाव है ।। सुता ससुरारि, भयो छूछक विचारि, सासु देत बहु गारिजाको निपट अभाव है । पिता सौ पठाई कहि, "बाती लै जराई इनि, जो कछु दियो जाय, श्रा" यह दाव है।। ४३८ । (१६१) वात्तिक तिलक । इन संतों से श्रीनरसीजी ने पूछा कि "श्यामल साह को आप देख आये?" साधुओं ने उत्तर दिया कि "हाँ।" तब ये संत, और नरसीजी, परस्पर बड़े उत्साह से मिले । संतों को भी अब यह ज्ञात होगया कि, येइंडी का व्यापार नहीं करते, श्रीप्रभु ही ने हमको रुपये और दर्शन दिय, इससे बड़भागी संत भी प्रेमरंग में डूब गये। जो हुंडी के रुपये थे सो सबके सब नरसीजी ने संतों ही को खिला दिये, आपका संतों में भाव या इसलिये प्रभु ने सब कामनाएँ पूर्ण की। श्रीनरसीजी की बड़ी कन्या के पुत्र हुया, सो लोक रीति में पिता के यहाँ से 'छूछक' (ननसारी, पीली) अर्थात् वन्च भूषण पकवान आदिक सब जाता है, सो नहीं गया। तब उस कन्या की सासु जो बड़ी कर्कशा थी सो गालियाँ देने लगी। पुत्री ने आप से कहला भेजा कि “यहाँ सासु गालियाँ देकर मेरी छाती जलाती है, जो पिताजी के पास कुछ देने को हो तो अवश्य पाकर दें॥" (५४७) टीका । कवित्त । (२९६) चले गाड़ी टूटी सी, उभय बूढ़े बैल जोरि, पहुँचे नगर बोर, द्विज कही जायकै । सुनत ही पाई देखि मुँह पियराई, फिरी "दाम नहीं एक तुम कियौ कहा श्राय के ?" ॥ "चिंता जिनि करो, जाय सासु दिग ढरौ, लिखि कागदछमें घरौ अति उत्तम अघाय के"। कही समझाय, सुनि निपट रिसाय उठी, कियौ परिहास, लिख्यो गाँव खुनसाय के ॥ ४३६ ॥ (१६०)

  • कागद 'कागजपत्र।